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आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा
करे | तथा कालके वैशिष्ट्य करके रोगके समय नाडी विलक्षण होजाती है ॥ २८ ॥
यहक्षणा तु नैरुज्ये नोदितायां तथा रुजि ॥
वयः कालरुजां भेदैभित्रभावं विभति सा ॥ २९॥
अर्थ - जैसी आरोग्य पुरुषकी नाडी होती है ऐसी रोगावस्थामें नहीं रहती इसका यह कारण है कि अवस्था, काल, और रोगोंके भेदकरके नाडी भिन्न भावकों धारण करती है | अर्थात् विपरीतता ग्रहण करती है ॥ २९॥
तदवस्थामतः प्राज्ञः सर्वथा सार्वकालिकीम् । ज्ञातुं यतेत मतिमान् लक्षणैः सुसमाहितः ॥ ३० ॥
(७)
अर्थ - इसी चतुर वैद्यको उचित है कि उस नाडीके सर्वकालकी सदैव लक्षणों के जाननेका यत्न सावधानता पूर्वक करता रहै ॥ ३० ॥
नाडीके स्पंदनकाकारण ।
परिव्याप्याखिलं कायं धमन्या हृदयाश्रयाः । वहन्त्यः शोणितस्रोतः शरीरं पोपयन्ति ताः ॥ ३१ ॥ हृदयाकुञ्चनाai कियदुत्पुत्य धामनीम् । तत्सञ्चितं तदुत्थञ्च प्रविश्य चापरास्वपि ॥ ३२ ॥ व्रजित्वा निखिलं देहं ततो विशति फुप्फुसम् । फुप्फुसाद्धृदयं याति क्रियैवं स्यात्पुनः पुनः ॥ ३३ ॥ रुधिरोत्प्लववेगेन धमनी स्पन्दते मुहुः । उत्प्लवप्र कृतेर्भेदाद्भेदः स्यात्स्पन्दनस्य च ॥ ३४ ॥ स्थौल्यादिकं धमन्याश्च तत्प्रकृत्यैव जायते । तत्प्रकारान्समासेन बुवे वत्स ! निशामय ॥ ३५ ॥
अर्थ - अब नाडीके चलनेका कारण कहते है कि हृदयके आश्रित धमनी नाडी सं
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२ [वयःकाल रुजाभेदैः ] इस लिखने का यह प्रयोजन है कि जैसी नाडी बाल्यावस्था में होती है ऐसी यौवन अवस्थामें नहीं और जैसी यौवन अवस्था में होती है ऐसी वृद्धावस्था में नहीं होती इसीप्रकार प्रातःकाल, मध्यान्ह और सायंकालमें पृथक् पृथक् भावसे चलती है तथा प्रत्येक रोगों में नाडीकी गति विलक्षण होती है । अर्थात् जैसी ज्वरवानकी नाडी होती है ऐसी अतिसारवान्की नहीं होती और जैसी अतिमारीकी होती है ऐसी ग्रहणीरोगवालेकी नहीं होती इत्यादि ।