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आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा क्वचिदन्थानुसंधानादेशकालविभागतः॥
क्वचित्प्रकरणाचापि नाडीज्ञानं भवेदपि ॥२०॥ अर्थ-अब नाडीज्ञानकी परिपाटी कहतेहै कि कहींतो नाडीज्ञान ग्रंथ पढनेसे होताहै, कहीं देश कालके जाननेसैं, और कहीं प्रकरण वशसें नाडीका ज्ञान होता है, तात्पर्य यहहै कि वैद्य केवल ग्रंथकेही भरोसैं न रहै, किंतु कुछ अपनीभी बुद्धिसै विचारे यह कौन स्थान है, कौनसा कालहै, और ये रोगी क्या आहार विहार करके आयाहै, इसप्रकार अच्छी रीति- विचारकर नाडीको कहे ।। २०॥
सद्गुरोरुपदेशाच्च देवतानां प्रसादतः॥
नाडीपरिचयः सम्यक् प्रायः पुण्येन जायते ॥२१॥ अर्थ-अब नाडीज्ञानकी उत्कृष्टता दिखातेहै कि सगुरु अर्थात् सद्वैद्यके बतानेसैं और देवताओंकी प्रसन्नतासै तथा पूर्वजन्मके पुण्यकरके नाडीपरिचय होताहै, किंतु अपने आप पढनेसें और विनादेव कृपाके तथा अधर्मी नास्तिकको नाडी देखनेका ज्ञान नहीं होताहै, अतएव जिसको नाडीज्ञानकी आवश्यकता होवे वो सद्गुरु और देवसेवा तथा धर्ममें तत्पर होय ॥२१॥
नाडीपरिचयो लोके न च कुत्रापि दृश्यते ॥
तेन यत्कथ्यत चात्र तत्समार्यमुत्तमः॥२२॥ अर्थ-नाडीका परिचय अर्थात् नाडीदेखनेका ज्ञान इससंसारमें कहीं नहीं दीखता इसीकारण जो इसग्रंथमें कहाजाताहै वो उत्तमपुरुषोंको अवश्य जानना चाहिये ॥२२॥
परीक्षणीयाः सततं नाडीनां गतयःपृथक् ॥
न चाध्ययनमात्रेण नाडीज्ञानं भवेदिह ॥२३॥ अर्थ-वैद्यको रचितहै कि निरंतर नाडीकी गतिकी परीक्षा कराकरे क्योंकि केवल पढनेहीसे नाडीका ज्ञान नहीं होता ॥ २३ ॥
न शास्त्रपठनादापि न बहुश्रुतकारणम् ॥
नाडीज्ञाने मनुष्याणामभ्यासः कारणं परम् ॥२४॥ अर्थ-नाडीके ज्ञानमें शास्त्रपठनेसैं अथवा बहुतनाडी संबंधी वार्ताओंके सुननेसैं नाडीका ज्ञान नहीं होता, किंतु नाडीज्ञानमें मनुष्योंको केवल अभ्यासही परम कारणहै इस्सैं अभ्यासकरे ॥ २४ ॥
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