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मुंबई के जैन मन्दिर
यह सुनते ही मोतीशाह आनन्द और उल्लास के साथ खुशी से उछल पडे एवं सोचने लगे मेरे स्थान की पसंदगी करूणावतार परमात्मा के अधिष्ठायक देवने स्वयं की हैं। देवने अपनी इच्छापूर्ति का माध्यम मोतीशा सेठ को बनाया, अत: उन्होने देव से कहा- आपश्री के आदेशानुसार पूर्ण प्रयत्न करूंगा कि इस स्थान पर परमात्मा का भव्य ऐतिहासिक प्रासाद बने । यक्ष की मनोकामना पूरी हुई । वह पुलकित होकर आशीर्वाद देकर स्वस्थान की तरफ लौट चला ।
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प्रात: काल वे अपने पारवारिक मित्र तुल्य शिल्पकार रामजीभाई से मिले । शिल्पकार सोचने लगा - इतने मन्दिर बनवाने के बाद भी चैन से नही सोता हैं । इस भूखण्ड में ऐसा नररत्न कहाँ से मिलेगा ।
मोतीशाह की इच्छानुसार शिल्पकार ने सिद्धाचल की मुख्य टुंक के जिनालय जैसा नक्षा बनाकर दिया । रामजीभाई शिल्पशास्त्र के अतिरिक्त ज्योतिष और मुहूर्त शास्त्र के भी अच्छे पंडित थे । उन्होनें मुहूर्त निकाल दिया, उस दिन इस जिनालय का खात मुहूर्त और शिलान्यास मोतीशा ने अपनी धर्मपत्नी सौभाग्यवती दीपादेवी के सहयोग से हजारो श्रावक गण के बिच धामधूमसे किया ।
जिनालय का काम पूरा होते ही तत्कालीन गुरूदेव खरतर गच्छीय आचार्य श्री जिनमहेन्द्र सूरीश्वरजी म. के निकाले गये मुहूर्त अनुसार वि. सं. १८८४ श्रावण शुक्ला द्वितीया को अहमदाबाद से आई हुई प्रतिमाजी का मुंबई नगर में प्रवेश कराया गया । प्रतिमाजी को प्रवेश कराने के लिये मोतीशाह, अपनी पत्नी दीपादेवी व पुत्र खेमचन्द तथा विशाल श्रावक-श्राविकाओ जुलुस के साथ समुद्र के किनारे गये थे। उस वक्त रेल - बस का साधन नहीं था ।
उसके बाद आचार्य भगवन्त तथा विधिकारक के निर्देशन में सेठ मोतीशाह व उनकी पत्नी दीपादेवीने वि. सं. १८८५ का मगसर सुदी ६ को प्रतिष्ठा करके भगवान बिराजमान किये थे ।
उस वक्त मूलनायक के साथ आजूबाजू में श्री सीमन्धर स्वामी और संभवनाथ भी बिराजमान किये गये, इसके साथ ७० देहरीया भी बनाई गई और उतनी ही प्रतिमाएँ तैयार की गई । पुंडरीक गणधर की स्थापना, रायण पादुका, सूरज कुण्ड, गोमुखयक्ष और चक्रेश्वरी देवी के साथ भव्य एवं विशाल दादावाडी का निर्माण कराया तथा अनेकानेक रंगबिरंगे फुलो से महकता उपवन भी बनाया गया था ।
उस वक्त प्रतिष्ठा महोत्सव पर पधारे हुए सुप्रसिद्ध श्रेष्ठिवर्य सभी व्यापारीक सम्बन्ध के रूप में मोतीशा सेठ के मित्र थे, जिनका नाम श्री हेमाभाई बखतचन्द्र, सुरजमल बखतचन्द्र, हठीसिंह केसरी सिंह एवं करमचन्द प्रेमचन्द आदि थे।
सेठ मोतीशाह का स्वर्गवास वि. सं. १८९२ का भादवा सुदि १ को हुआ था ।
युग दिवाकर आचार्य भगवंत श्री विजय धर्मसूरीश्वरजी का ऐतिहासिक आचार्य पदारोहण महोत्सव
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यहाँ वि. सं. २००७ में परम पूज्य सिद्धान्त निष्ठ आचार्य भगवन्त श्री विजय प्रतापसूरीश्वरजी म. सा. और परम पूज्य युगदिवाकर आचार्य भगवंत श्री विजय धर्मसूरीश्वरजी म. सा. की पुण्य निश्रा में श्री गोडीजी जैन संघ की तरफ से श्री उपधान तप की