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मुंबई के जैन मन्दिर
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विशेष :- श्री विजय देवसूरि जैन संघ, श्री गोडीजी जैन मन्दिर पेढी और श्री मलाड जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ द्वारा संचालित इस भव्य जिनालय का निर्माण परम पूज्य श्री मोहनलालजी महाराज की प्रेरणा से संघवी देवकरण मूलजी ने किया था। यह मलाड विभाग का सबसे प्राचीन मंदिर हैं, जिसकी प्रतिष्ठा वीर सं. २४४९ वि. सं. १९७९ का वैशाख वद ६ रविवार को परम पूज्य आ. भगवंत जयसिंह सूरीश्वरजी म. की पावन निश्रा में हुई थी। ___वर्षों के बाद, मुंबई महानगर की मोहधरा को धर्मधरा बनाने वाले परम पूज्य युग दिवाकर आचार्य भगवन्त श्री विजय धर्मसूरीश्वरजी म. सा. की प्रेरणा और मार्ग दर्शनानुसार, कई वर्षों के बाद आजकल इस जिनालय का जीर्णोद्धार कार्य का प्रारंभ हो रहा हैं
इस जिनालय के संस्थापक वंथलीवाले सेठ श्री देवकरण मुलजी तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती पुतलीबेन देवकरण संघवी थे । वैशाख वद ६ की सालगिरी के पुण्य दिन पर संघ स्वामीवात्सल्य का कायमी लाभ का आदेश भाग्यशाली भद्रावल वाले स्व. अ. सौ. चंपाबहन प्रभुदास गांधी एवं उनके सुपुत्र स्व. प्रतापराय प्रभुदास गांधी के आत्मश्रेयार्थे प्रभुदास मोहनलाल गांधी परिवार को मिला हैं।
उपर मूलनायक शीतलनाथ पंचधातु के तथा पाषाण की ६ प्रतिमाजी कुल सात प्रतिमाजी बिराजमान हैं। सुरतवाले मंछुभाई जीवनचन्द्र की धर्म पत्नी रुक्ष्मणीबेन मंछुभाई ने वि. सं. २००२ का माह वद १४ शनिवार ता. २-३-४६ को बिराजमान किये थे।
आदिनाथ प्रभु एवं महावीर प्रभु को आ. भ. श्री हेमसागरसरीश्वरजी म. की शुभ निश्रा में वि. सं. २०१७ का वैशाख वद ६ ता. ६-५-६१ शनिवार को तथा श्री पार्श्वनाथ एवं श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु को आ. विजय यशोभद्रसूरि की शुभ निश्रा में वि. सं. २०२३ का पोष सुदी १५ गुरुवार को स्थापित किये थे।
नीचे मूल गंभारे में पंचधातु की श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ प्रभु की एक प्रतिमाजी तथा आजुबाजु में श्री मुनिसुव्रत स्वामी एवं श्री सुविधिनाथ की पाषाण की २ प्रतिमाजी तथा पंचधातु की प्रतिमाजी, सिद्धचक्रजी एवं अष्टमंगल वगैरह ४२ का अंदाजा हैं। जिनालय में प्राचीन कारीगरी में २४ तीर्थंकर प्रभु के कांच के रचाये २४ चित्र भी सुशोभित हैं। पहाड के द्दश्य जैसा शत्रुजय तीर्थ अतिसुन्दर हैं। जिनालय के बाहर की ओर पार्श्वयक्ष एवं पद्मावती देवी की अलग देहरी हैं।
पूज्य पाद आचार्य भगवंत श्री विजय मोहन-प्रताप-धर्मसूरीश्वर परिवार के प. पू. आ. भ. श्री विजय महानन्दसूरीश्वरजी म. सा. और प. पू. आ. भ. श्री विजय महाबलसूरीश्वरजी म. सा. (उस समय दोनो पंन्यासजी) की प्रेरणा और मार्गदर्शन से यहाँ तीन मंजील का भव्य और आलीशान नूतन आयंबिल भवन और श्राविका उपाश्रय का निर्माण का प्रारंभवि. सं. २०३९ में हुआ हैं। जिसका मुख्य नामकरण का लाभ सेठ श्री बाबुभाई वच्छराज महेता ने लिया हैं।
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