SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राग द्वेष दोय दोष ए, अष्ट करम जड एह । हेतु एह संसार का, तिनको करबो छेह ॥१६॥ शीघ्र पणे जड मूलथी, रागद्वेष को नाश । करके श्री जिन चंद्रकु, निर खु शुद्ध विलास ॥१६६॥ एहवा प्रभुकु देखके, रोम रोम उलसत । वचन सुधारस श्रवण ते, हृदय विवेक वधंत ॥१६८।। पवित्र थई जिन देव के, पासे लेशू दीख । दुधर तप अंगी करूं, ग्रहण प्रासेवन शीख ॥१७॥ चरण धरम प्रभावथी, होशे शुद्ध उपयोग । शुद्धातम को रमणता, अद्भुत अनुभव जोग ।।१७१ । अनुभव अमृत पान में, प्रातम भये लयलीन । क्षपक श्रेण के सनमुखे, चढ़ण प्रयाण ते कोन ॥१७२।। आरोहण करी श्रेणी को, धाती करम को नाश । धन धाती छेदो करी, केवल ज्ञान प्रकाश ॥१७३।। प्रेहि परमपद जाणीये, सो परमातम रूप । शाश्वत पद थिर एह छे. फिरी नहीं भवजल कूप।।१७५ अविचल लक्ष्मी को धणी, अह शरीर असार । तिनको ममता किम करे, ज्ञानवंत निरधार ।।१७६॥ [६] For Private And Personal Use Only
SR No.020484
Book TitleMukti Ke Path Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay, Amratlal Modi
PublisherProgressive Printer
Publication Year1974
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy