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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यग दृष्टि प्रातमा, श्रेण विध करी विचार । थिरता निज स्वभाव में, पर परिणति परिहार ॥१७॥ जो कदी एह शरीर को, रहेणो काइक थाय । तो निज शुद्ध उपयोग को, पाराधन करू सार ।१७६ । जो कदी थिति पूरण थई, होय शरीर को नाश । तोपरलोक विषे करू', शुद्ध उपयोग अभ्यास ॥१८॥ मेरे परिणाम के विषे, शुद्ध सरूप की चाह | अति आसक्त पणे रहे, निश दिन एहिज राह ।।१८२॥ इंद्र धरणे द्र नरेद्र का, मुझको भय कुछ नाहीं । या विध शुद्ध सरूप में, मगन रहूं चित्त मांही ।१८४ समरथ एक महाबली, मोह सुभट जग जाण । सवि संसारी जीव को, पटके चहुं गति खाण ।। १८५|| दुष्ट मोह चंडाल की, परिणति विषम विरूप । संजमधर मुनि श्रेणीगत, पटके भवजल कूप ॥१८६।। मोह कर्म महा दुष्टको, प्रथम थकी पहचान | जिन वाणी महा मोगरे, अतिशय कोध हेरान ।।१८७।। जरजरी भूत हुई गया, नाठा मुझ सुदूर । अब नजीक आवे नहीं, दुरपे मुजसु भूर ।।१८८ll तेणे करी मैं नचित हैं, अब मुज भय नहीं कोई। त्रण लोक प्राणी विषे, मित्र भाव मुझ होय ॥१८६।। [८७] For Private And Personal Use Only
SR No.020484
Book TitleMukti Ke Path Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay, Amratlal Modi
PublisherProgressive Printer
Publication Year1974
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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