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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वामिनोती ह वा इद" सर्वमपोतिश्च भवति य एवं वेद ॥११॥ 'प्राज्ञ', जिसका क्रिया-क्षेत्र सुषुप्तावस्था तक सीमित रहता है, ॐ की तीसरी मात्रा 'म्' है क्योंकि ये दोनों 'मापक' हैं और इनमें सब एक-रूप हो जाते हैं । जो कोई 'प्राज्ञ' के इस स्वरूप तथा 'म्' को अनुभव कर लेता है वह संसार के प्राणियों एवं पदार्थों को समझ लेता है और सबको वह अपने आप में देखने लगता है। जिन पाठकों ने पिछले दो मन्त्रों को ध्यानपूर्वक समझा है वे सुगमता से सुषुप्तावस्था तथा 'म्' मात्रा में समानता पायेंगे । यहाँ भी उपनिषद् द्वारा इन दोनों में दो विशेष समान-गुण बताये गये हैं । संस्कृत के 'मिति' शब्द का अर्थ 'मापक' है ; जैसे एक औंस का मापगिलास, जिसे द्रव-पदार्थ को मापने के लिए प्रयोग में लाया जाता है । इसकी साधारण विधि यह है कि जिस गिलास में बिना नापा हुआ जल पड़ा है उसमें से इस औंस -गिलास में जल डाल कर इसे पहले नापे हुए जल के गिलास में उँडेल दिया जाय । इस क्रिया के द्वारा द्रव-पदार्थ पहले-पहल इस गिलास को भर देता है और बाद में यह रिक्त (खाली) हो जाता है । इस क्रम से यह भरता तथा खाली होता रहता है। ऐसे ही ॐ में 'म्' की मात्रा और सुषुप्तावस्था दोनों की तुलना की जा सकती है । ये दोनों ऊपर बताये गये औंस -गिलास की भाँति हैं । यह इस प्रकार है-ॐ का उच्चारण करते समय इसकी पहली दो मात्राएँ ('अ' तथा 'उ') तीसरी मात्रा ('म्') में समा जाती हैं। जब हम फिर ॐ का उच्चारण करते हैं तो इसकी तीसरी मात्रा 'म्' से 'अ' तथा 'उ' की उत्पत्ति होती प्रतीत होती है । पहली तीन अवस्थाओं पर विचार करने पर हमें ऐसा प्रतीत होता है कि सुषुप्तावस्था में भी पहली दोनों ('जाग्रत' तथा 'स्वप्न') For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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