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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ६४ ) 'स्वप्न' तथा 'सुषुप्त' अवस्था से परे की अवस्था की ओर संकेत करते हुए शिष्य से कहते हैं-"यही आत्मा है।" यह कह कर मानो गुरु अपने शिष्य के सम्मुख 'प्रात्मा को रख कर इसे प्राप्त करने का आग्रह कर इस मन्त्र के अन्तिम भाग के इन शब्दों (स आत्मा स विज्ञेयः) का एक विशेष तथा पवित्र महत्व है । इस प्रकार इस ‘परमात्म तत्त्व' की यथासम्भव परिभाषा करने का प्रयास करते हुए गुरु ने शिष्य से कहा, "जिसे तुमने अब अपनी बुद्धि द्वारा समझा है उसे केवल शास्त्राध्ययन से प्राप्त नहीं किया जा सकता' । शास्त्रों के रहस्यपूर्ण भाव को निस्सन्देह विवेक-बुद्धि की सहायता से समझा जाता है किन्तु इतने पर ही हम 'ब्रह्म-विद्या' की पराकाष्ठा पर नहीं पहुंच पाते । इस रहस्य पर मनन करना नितान्त आवश्यक है। यह बात तभी सम्भव होगी यदि साधक इन बाह्य प्रावरणों से अलग रह कर अपने भीतर के व्यापक एवं पवित्र आत्म-तत्त्व की फिर से खोज तथा प्राप्ति करे । स्थूल जगत के अनेक पदार्थों का चिन्तन करते रहना 'मग-तष्णा' के सदृश है । भला मरुस्थल में प्रतीत होने वाली उस 'जल-धारा' से सिक्ता (रेत) का एक भी कण क्या सिंचित् हो सकता है ? यहाँ जो कुछ बताया गया है उससे यह समझा जाता है कि दृष्ट-जगत् से परे रहने वाला अद्वैत-तत्त्व हमारे भीतर ही अनुभव किया जा सकता है । जीवन के इस लक्ष्य की प्राप्ति केवल अध्ययन तथा विचार की सहायता से नहीं हो सकती । आध्यात्मिक जीवन के इस ध्येय को प्राप्त करने का एकमात्र साधन 'ध्यान' के राज-मार्ग को अपनाना है । निवृत्तः सर्वदुःखानामीशानः प्रभुरव्ययः । अद्वैतः सर्वभावानां देवस्तुर्यो विभुःस्मृतः ॥१०॥ इस 'परमात्म-तत्त्व' में, जो परिवर्तन-रहित है, सब दुःख पूर्ण रूप से शान्त हो जाते हैं । इस नाम-रूप जगत् में 'अद्वैत' तत्त्वों For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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