SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५६ ) प्रत्ययसारं प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थ मन्यते स प्रात्मा स विज्ञेयः ॥७॥ यह वह तत्व नहीं जो भीतरी, बाह्य और इन दोनों संसारों से परिचित हो। यह न चेतन है और न अचेतन । यह किसी इन्द्रिय द्वारा देखा नहीं जा सकता, न किसी से व्यवहार करता और न मन द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। यह लक्षण और विचार से रहित है । इसे वर्णन करना असंभव है; यह निश्चय रूप से प्रात्मा से अभिन्न है। इसमें कोई प्रपंच नहीं पाया जाता । यह शान्त, कल्याणकारी और अद्वैत है । इसे 'तुरीय' (चतुर्थ) अवस्था कहा जाता है। यही प्रात्मा है जिसका साक्षात्कार करना हमारा ध्येय है। परमात्मा को शब्द-बद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि शब्दों द्वारा किसी पदार्थ के गुण, धर्म क्रिया आदि की व्याख्या ही की जा सकती है। सत्यसनातन तत्व निर्गुण और क्रिया-रहित है । धन-पदार्थों को प्राकृतिक विज्ञान द्वारा गुण-युक्त कहा गया है और ये अनित्य होते हैं । यदि हम इस परमतत्व में किसी गुण का समावेश करें तो यह परमोच्च स्थान से गिर कर सीमाबद्ध हो जायेगा । इस प्रकार यह अमर तत्त्व मरण के स्तर पर आजायेगा। इस कारण 'तरीय' (चतुर्थ) अवस्था को केवल नकारात्मक भाषा द्वारा समझाया जा सकता है । इस परमात्म-तत्त्व को वर्णन करने का यह एकमात्र साधन है । संसार के किसी देश तथा भाषा के दर्शन-शास्त्र में इसे इतनी सुन्दरता से वर्णन नहीं किया गया है। इसके द्वारा भाषा को साधनमात्र बना कर यह रहस्य समझाया गया है । इस तरह 'अद्वैत' तत्त्व में सभी दृष्ट-पदार्थों ; भावनाओं और क्रियाओं का प्रभाव दिखाया गया है। For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy