SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५१ ) यहाँ श्री गौड़पाद ने प्रस्तुत प्रसंग के स्थान में 'सृष्टि' के भाव की व्याख्या की है । जब हम 'अहम्' अर्थात् 'कर्ता' के विषय में जानकारी प्राप्त करने का मनोरथ करते हैं तो हमारे लिए सर्व-प्रथम इस सिद्धान्त को पूरी तरह समझना आवश्यक है कि संसार के पदार्थ मिथ्या हैं और ये उस समय हमारे अनुभव में आते हैं जब चेतना 'कर्ता' से निकल कर मानसिक संक्षेत्र (mind-prism) में प्रवेश करती है। जब तक यह अन्यमनस्कता (distraction) रहती है तब तक हम मिथ्या जगत् से बाहर नहीं निकल सकते और न ही अपने भीतर के 'कर्ता' अर्थात् 'आत्मा' के क्षेत्र में प्रवेश करके इसे जानने की ओर अग्रसर हो पाते हैं। इसलिए प्रत्येक महानाचार्य ने स्थूल जगत् के कारण, गति और मौलिक स्वरूप की व्याख्या करना आवश्यक समझा । शास्त्रों के इस परम्परागत साधन का अनुकरण करते हुए श्री गौड़पाद ने भी कुछ मन्त्रों में स्थूल संसार तथा इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों की विविध उक्तियों को संक्षेप से वर्णन किया है। सम्पूर्ण प्रात्म-तत्त्व में क्रियाशीलता तथा चेतना दोनों का अस्तित्व विद्यमान है । इसकी क्रियाशीलता को हम 'प्राण' कह सकते हैं। इसके चेतनस्वरूप को हम 'चेतना' का नाम देते हैं । प्रत्यक्ष संसार में 'स्थावर' एवं 'जंगम' का अस्तित्व है । भिन्न प्रकार के दो ‘परिणाम' देखने पर हम अपने सीमित अनुभवों का यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि उनके दो अलग-अलग कारण होंगे क्योंकि एक ही कारण से दो विभिन्न फल प्राप्त नहीं हो सकते। 'स्थावर' और 'जंगम' में पारस्परिक विरोध पाया जाता है; इसलिए उनकी उत्पत्ति के दो अलग-अलग कारण होने आवश्यक हैं। यहाँ श्री गौड़पाद इन कारणों की व्याख्या करने का प्रयास कर रहे हैं। उनके विचार में वास्तविकता के क्रियमाण स्वरूप (प्राण) से संसार के अचेतन पदार्थों की उत्पत्ति होती है और इसके चेतन-स्वरूप (पुरुष) से चेतनायुक्त प्राणियों का उद्भव होता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy