SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४५ ) प्राचीन ऋषियों की इस प्रकार की उक्तियाँ हास्यास्पद दिखायी देती होंगी। जब आधुनिक-युग का कोई शिक्षित व्यक्ति जल्दबाजी में रेलवे बुक स्टाल से खरीदे गये उपनिषद्-ग्रन्थ से, जिसमें मंत्रों का शब्दशः अर्थ दिया गया है, इस तरह के गूढ़-रहस्य को तुरन्त जान लेने का प्रयास करता है तो उसे इन बातों पर हँसी आने लगती है। ऐसा बेसमझ व्यक्ति शास्त्रों में दी गयी बातों को शब्द-जाल, निरर्थक तथा सारहीन समझ बैठता है-इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं । पाइए, हम इसे भली भांति समझने का यत्न करें। हमारे जाग्रतसंसार को अनुभव करने वाला 'विश्व' है। जाग्रतावस्था में शरीर से सीधा सम्पर्क होने के कारण हम बाह्य-जगत् के विविध स्थूल पदार्थों को ही जान पाते हैं । दृष्ट जगत को जाग्रतावस्था में ही जानना संभव है । अब ऋषि गौड़पाद ने हमें प्रत्येक 'अहंकार' के वास्तविक-स्थान को दिखाने की कोशिश की है। यह अहंकार निश्चय रूप से कोई विशेष विन्दु नहीं है जैसे कोई अंगूठी या बटन । यह शक्ति सारे शरीर में व्यापक है; तो भी जब हम जाग्रतावस्था की स्थिति का परीक्षण करने तथा इसके केन्द्र-स्थान को, जहाँ से बाहर निकल कर यह गतिमान होता प्रतीत होता है, जानने का प्रयत्न करते हैं तो हमें यह पता चलता है कि हमारी सभी इन्द्रियों में 'नेत्रों' का विशेष महत्व और लाभ है। ___ यदि हम दोनों नेत्रों की तुलना करें तो हमें पता चलेगा कि बाई आँख की अपेक्षा दाई आँख में अधिक सामर्थ्य होती है। किसी और अंग के न होने पर हम बाह्य-जगत् से इतना अनभिज्ञ नहीं होते जितना आँखें न होने पर । यदि हमारे नेत्र ठीक हैं तो हम वधिर तथा 'लकवा' होने पर भी संसार को एक नेत्र-हीन व्यक्ति की अपेक्षा अधिक मात्रा में अनुभव कर सकेंगे । इस प्रकार विश्लेषण करने से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि (१) हमारे नेत्र वह मुख्य-स्थान हैं जहाँ से जाग्रतावस्था का 'अहंकार' विभिन्न अनुभव प्राप्त करता है और (२) दोनों आँखों में 'दक्षिण' नेत्र 'विश्व' For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy