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जिस का ध्यान तथा मनन करने से साधक नये विस्तत क्षेत्र में प्रवेश कर सके । अन्त में हम उस विन्दु पर पहुँच जाते हैं जहाँ किसी प्रकार के विचार उत्पन्न नहीं हो सकते । वहाँ सब विचार शान्त हो जाते हैं अर्थात् हमें आत्मानुभूति हो जाती है।
हमारे भीतर का दिव्य जीवन-स्फलिंग, जिसे हम 'अपना आप' कहते हैं, वेदान्त में 'आत्मा' के नाम से स्मरण किया जाता है । हमारे लिए इसे अनुभव करना आवश्यक है । यह हमें प्रत्यक्ष रूप से दिखाया तो नहीं जा सकता; फिर भी इसे संस्कृत भाषा में रहस्यपूर्ण शब्दों द्वारा अनुभव कराया जा सकता है । वेदान्त द्वारा जिस क्रिया-विधि को अपनाया गया है उसके द्वारा ज्ञान और तर्क-पूर्ण विश्लेषण करके 'असीम' को समझाया जा सकता है । इस दिशा में हमें उन सभी अनुभवों का विवेक-पूर्ण परीक्षण करना होगा जिनमें यह जीवन-शक्ति निरन्तर होते रहने वाले कार्यों द्वारा क्रियाशील होती रहती है।
यदि हम दूर की किसी घाटी से धुआँ निकलता देखें तो हम तुरन्त इस परिणाम पर पहँचेंगे कि वहाँ अग्नि जल रही है। इस तरह जब हम गतिहीन जड़-तत्व को गतिमान होते हुए देखते हैं तो हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि चेतन-शक्ति इस क्रियमाण जड़-तत्त्व के सम्पर्क में अवश्य प्राई होगी। इसलिए ऋषियों के पास इस 'यथार्थता' को समझाने का केवल एक ही साधन रह गया और वह थी इसकी ग्राह्य क्रियाशीलता जिस के द्वारा यह जड़-तत्व को गति प्रदान करता रहता है ।
बिजली को हम न तो देख सकते हैं और न ही उसकी व्याख्या कर सकते है। फिर भी हम एक नवागन्तुक ग्रामीण को इसके विविध रूप दिखा कर विद्युत् शक्ति का सामान्य ज्ञान करा सकते हैं।
यदि किसी दिन सैर करते हुए आपका पुत्र समुद्र के तट पर खड़ा होकर यह पूछे-"पिता जी ! समुद्र किसे कहते हैं ?" तो आपके पास उसे समझाने के लिए एक ही साधन होगा और वह समुद्र के उन विविध रूपों
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