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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३३१ ) इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य प्रत्यक्ष संसार, मन के भावना-पूर्ण जगत और बुद्धि से सम्बन्धित विचार की उपलब्धि होती रहती है । जब हमारी आत्मा मन एवं बुद्धि के साधनों के द्वारा गतिमान् होती है तभी यह द्रष्टा (जीव) प्रकट होता है। भौतिकता के वेष में विभूषित होकर वास्तविक तत्व एक समझ मर्त्य का नाटक खेलता है; इसी को विविधता-पूर्ण संसार की अनुभूति होती है । जिस समय यह (जीव) अपने शरीर, मन और बुद्धि का अतिक्रमण कर लेता है उसी क्षण यह द्रष्टा लुप्त हो जाता है और उसके न रहने पर दृष्टपदार्थों की भी सत्ता नहीं रहती । इस कारण प्रस्तुत मंत्र में कहा गया है कि सभी तत्व स्वभाव से नाश-रहित हैं और वे पूर्ण रूप से उसी प्रकार असीम होते रहते हैं जैसे पात्र के भीतर का आकाश । आकाश का दृष्टान्त इससे पहले विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है । प्रात्म-तत्व की समान अनुभूति, जिसे परम-सत्य कहा जाता है, कभी अनेकता से लिप्त नहीं होती । संसार के विविध पदार्थ चेतना के ही विच्छिन्न रूप हैं । जब यह (चेतना) मन और बुद्धि के उपकरण में प्रतिबिम्बित होती है तब इन पदार्थों की प्रतीति होने लगती है । प्रादि बुद्धाः प्रकृत्यैव सर्वे धर्मा सुनिश्चिताः । यस्यैवं भवति क्षान्तिः सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥१२॥ सभी जीव प्रकृति से प्रकाशमान होते हैं और इनके निश्चित् धर्म सर्वदा निश्चित रहते हैं । जो व्यक्ति इस ज्ञान में अधिष्ठित रहता है और इससे अधिक ज्ञान प्राप्त करने की लालसा नहीं रखता वही परमात्म-तत्व को अनुभव करने की क्षमता रखता है । गुरु-जनों द्वारा दिये गये शास्त्र-सम्बन्धी प्रवचनों के श्रवण, मनन आदि से ज्ञान प्राप्त कर लेने पर साधक मानसिक सन्तोष तथा अधिक श्रद्धा का उपयोग करके कृतकृत्य हो जाते हैं। दर्शन-तत्व का अध्ययन कर चुकने के बाद यदि साधक के मन में ध्येय तथा साधन के प्रति कोई शंका रह जाय तो For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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