SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१६ ) कभी केवल स्थावर, कभी इन दोनों का मिश्रण तथा कभी इन दोनों (स्थावर और जंगम) से रहित कहने लगते हैं। यह 'चतुष्कोटि' बौद्ध ग्रन्थ 'नागार्जुन" से ली गयी है जिस कारण ऋषि के कतिपय अालोचक उन्हें बौद्ध कह कर तिरस्कृत करते हैं। यह घोर अन्याय है क्योंकि कोई दार्शनिक तर्क को अपनाने का दावा नहीं कर सकता। क्या वह योजक, संज्ञा अथवा क्रियाओं पर अपने अधिकार सुरक्षित रख सकता है ? किसी विचाराधीन समस्या का बौद्धिक विश्लेषण करने के केवल चार मार्ग हो सकते हैं । अतः यहाँ इस चतुष्कोटि का उपयोग किया गया है । श्री गौड़पाद एक ही मंत्र में भारत के विविध न्याय-दर्शनों के मुख्य अंशों पर विचार करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इनमें से प्रत्येक विचार-धारा वाले आत्मा में कई एक विशेष गुणों का आरोप करते हैं। वैशेषिकों का दावा है कि प्रात्मा की सत्ता शरीर, इन्द्रिय, प्राण आदि से स्पष्टतः अलग है और यह (आत्मा) सुख-दुःख की ज्ञाता तया उपभोक्ता है । वे आत्मा को 'अस्ति' मानते हैं। क्षणिक विज्ञानवादी बौद्ध यह दावा करते हैं कि शरीर से पृथक् होने पर भी प्रात्मा से बुद्धि का तादात्म्य होता है । उनके मतानुसार प्रत्येक विचारतरंग, जो हमारे मन में उठती है, आत्मा द्वारा प्रकाशित होती है और दो ऋमिक विचारों के मध्यवर्ती क्षणों में आत्मा के लिए कुछ भी न रहने से चेतना की सत्ता नहीं रहती । इस तरह उनके दृष्टि-कोण में प्रत्येक विचार की उत्पत्ति के समय प्रात्मा का जन्म होता है और उस (विचार) के साथ ही यह भी समाप्त हो जाता है । इस कारण क्षणिक-विज्ञानवादी सनातन, शाश्वत तथा सर्व-व्यापक वास्तविक-तत्व के अस्तित्व में आस्था नहीं रखते। उनके विचार में ज्ञान क्षण भर के लिए रहता है और विचारों के प्रगट तथा अदृश्य होते रहने से यह (आत्मा) हमें स्थायी तथा गतिमान् प्रतीत होती है। बौद्धमत के इस आध्यात्मिक आदर्शवाद के अनुसार सनातन एवं स्थायी आत्मा का अस्तित्व नहीं है (नास्ति)। For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy