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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३०७ ) यदा न लभते हेतूनत्तमाधममध्यमान् । तदा न जायते चित्त हेत्वभावे फलं कुतः ॥७६॥ जब मन के सामने कोई उत्तम, मध्यम अथवा अधम कारण नहीं रहता तो यह जन्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है। जब 'कारण' ही नहीं है तो 'कार्य' की सत्ता किस प्रकार बनी रह सकेगी? मीमांसकों के विचार में जीव का जन्म उसकी अहंकार-सम्बन्धी प्रवृत्तियों के अनुसार होता है । कोई क्रिया उस समय तक फलीभूत नहीं होती जब तक उसकी कोई प्रतिक्रिया न हो। इस प्रकार किसी कार्य का फल वही कार्य होता है जो कभी तर्क-वितर्क के बाद किया गया हो। काम करते समय हम जिस उद्देश्य को लिये रहते हैं उससे हमारी नयी वासनाएँ बनती रहती हैं और इन (वासनाओं) के अनुसार हमारे मन का ढाँचा बदलता रहता है । बीते समय के अपने दैनिक आदान-प्रदान में मनुष्य जिन वासनाओं को इकट्ठा करता है उन्हीं के अनुसार उसका मनोवैज्ञानिक निर्माण होता रहता है । इसलिए हम कह सकते हैं कि मनुष्य का अमुक समय का व्यक्तित्व उसके बीते जीवन का ही प्रतिफल है । मनुष्य का मन वह 'खाता' कहा जा सकता है जिसमें उसके 'भूतकाल' की वासनाओं की प्रायव्यय का लेखा लिखा रहता है । इस जमा-खर्च में जिसका योग-फल अधिक होता है उसी के अनुसार उसे भविष्य में फल भोगना पड़ता है । प्रतिक्षण आने वाले समय के क्रिया-क्षेत्र को यह तैयार करता रहता है । तीन कारणों से होने वाली क्रियाओं के द्वारा जो वासनाएँ हमारे मन में एकत्र होती रहती हैं उन पर हमारे भावी अनुभव तथा क्रिया-क्षेत्र निर्भर रहते हैं । मनुष्य जो जो क्रियाएं करने में क्षम्य है उन्हें शास्त्रों ने तीन मुख्य वर्गों में विभक्त किया है-उत्तम, अधम और मध्यम । प्रेम एवं दया-पूर्ण वे विशिष्ट कर्म, जिन्हें भगवान् के अर्पण करने की पुनीत भावना से किया जाता है और जिन्हें करते रहने पर अभीष्ट सिद्धि For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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