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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६३ ) वेदान्तवादी 'सत्य' की घोषणा करते हुए कहते हैं कि 'चिरन्तन सत्य' में न तो विविध पदार्थों की स्थिति हो सकती है और न ही किसी प्रकार के भाव यहाँ ठहर सकते हैं; किन्तु पदार्थ मय बाह्य-संसार और भावमय अन्तर्जगत को प्रकाशमान करने वाला अजात, सर्व-व्यापक और अविकारी परमात्म-तत्त्व ही है । एक अज्ञानी की दृष्टि में जन्म-मरण का चक्र कारण-कार्य सम्बन्धी नियम के अनुसार निरन्तर चलता रहता है; किन्तु अनन्त परमात्म-तत्त्व को अनुभव करने वाले व्यक्ति की दृष्टि में अनेकता की स्थिति ही नहीं है। वह तो प्रात्मा की अनुभूति को सब कुछ मानता है । संक्षेप में हम यह सकते हैं कि जन्म-मृत्यु से सम्बन्ध रखने वाले विचार अपेक्षाकृत दृष्टि से ही माने जा सकते हैं । एक विद्वान् सब पदार्थों में अद्वैत प्रात्मा को ही अनुभव करता है जिससे वह किसी वस्तु को नष्ट होने वाली नहीं मानता । उसके विचार में तो हमारी मिथ्या मानसिक प्रवृत्तियाँ-कारण-कार्य, जन्म-मृत्यु प्रादि--भी अविनाशी हैं। धर्मा स इति जायन्ते जायन्ते ते न तत्त्वतः। जन्म मायोपनं तेषां सा च मया न विद्यते ॥५॥ हमें पृथक् रखने तथा आत्माभिमान की रचना करने वाले तत्त्व जन्म लेते कहे जाते हैं; किन्तु प्रात्मा की अनुभूति करने वाले के विचार से ऐसा होना संभव नहीं है । इसलिए जन्म एक मिथ्या पदार्थ के समान अवास्तविक है और साथ ही यह 'माया' स्वतः मिथ्या है। पिछले मंत्र में पदार्थमय संसार को मिथ्या सिद्ध करने में प्रयत्नशील होते हुए भी श्री गौड़पाद ने बड़ी उदारता से हमें इस दृष्ट-संसार का कारण बताया था । ऋषि के विचार में इस (संसार) का प्रादुर्भाव अज्ञान से हुआ। इस मंत्र में हमें यह बताया गया है कि संसार के पदार्थ वास्तविक न होने पर भी हमें उत्पन्न होते दिखायी देते हैं। इससे पाठकों के मन में यह सन्देह उठ सकता है कि ज्ञान के साथ-साथ अज्ञान की सत्ता भी बनी रहती है । इस शंका For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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