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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८७ ) इतर' शब्दों का उपयोग किया गया है। यदि मैं सहृदयता तथा अनन्य भाव से किसी के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करूं तो उस (व्यक्ति) में भी अधिक प्रेम का संचार होगा । शिक्षा द्वारा मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त की जा सकती है । यदि सहानुभूति का समुचित उपयोग किया जाय तो घृणित नृशंस के हृदय को भी द्रवीभूत किया जा सकता है। इस तरह हम देखते हैं कि प्रेम, दया आदि के द्वारा दूसरों के हृदय में प्रेम, दया आदि का संचार करना सम्भव है । घणा से घणा तथा प्रेम से प्रेम उत्पन्न होते है। वैयक्तिक मिथ्याभिमानी में द्रव्य अथवा अनुभव से सम्बन्धित व्यक्तित्व नहीं पाया जाता और न ही इससे किसी अन्य द्रव्य या अनुभव का प्रकाश हो सकता है। एवं न चित्तजा धर्माश्चित्तं वापि न धर्मजम् । एवं हेतु फलाजाति प्रतिशन्ति मनीषिणः ॥५४॥ इस तरह बाह्य विषय-पदार्थों की रचना मन के द्वारा नहीं होती और न ही हम यह कह सकते हैं कि इन (पदार्थों) के द्वारा मन की उत्पत्ति होती है । इसलिए सभी बुद्धिमान व्यक्ति परमात्मतत्व के अजात तथा अविकसित (जिसे 'कारण' की पूर्ण नकारात्मकता भी कहते हैं ) होने में विश्वास रखते आये हैं। पदार्थ-सृष्टि को समझाने के लिए सामान्य सिद्धान्त यही है कि यह मन का प्रक्षेपण है। मनोवैज्ञानिकों के सिद्धान्त का दृष्टिकोण यह है कि इन्द्रियों के द्वारा निरन्तर प्राप्त होने वाली वासनाओं (impulses) में स्थूल संसार स्थित रहता है और इसके पूर्णत्व में मनकी भावना जाग्रत हो उठती है । अब तर हम जो कह पाये हैं उससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि दृष्टपदार्थों तथा मन में कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं हो सकता। इसलिए हमय ह परिणाम निकालते हैं कि प्रत्यक्ष संसार का, जिसे मन द्वारा अनुभव किया जाता है, वास्तविकता से उद्भव किसी अवस्था में नहीं हुआ। इस कारण श्री गौड़पाद इस मंत्र को समाप्त करते हुए हमें यह बताते हैं कि बुद्धिमान् व्यक्ति प्रजातवाद अथवा अविकासवाद को ही क्यों अपनाते हैं। उनके For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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