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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८१ ) सकता क्योंकि इसका हवाला देकर ऋषि अपने विचारों को स्पष्ट रूप से प्रकट कर पाये। सभी महानाचार्य इस विधि को अपनाते रहे हैं क्योंकि पहले दिये गये दृष्टान्तों का उल्लेख करने से वे अपने युग के विद्यार्थियों के मन पर अपने मौलिक विचारों की गहरी छाप छोड़ सकते थे । उन्हें निज ख्याति की लालसा नहीं होती थी । युगकालीन छात्र एवं साधकों के मन में पहले से विद्यमान रहने वाले विचार तथा दृष्टान्तों का वे समुचित उपयोग किया करते थे । अतः यदि भगवान गौड़पाद ने 'अलात' के उदाहरण का यहाँ उद्धरण कर भी दिया तो उनसे कोई ऐसा भयंकर दोष नहीं हुआ जिसके लिए उनका तिरस्कार किया जाय । यहाँ लकड़ी के एक ऐसे टुकड़े का दृष्टान्त दिया गया है जिसके एक जलते हुए सिरे को इधर-उधर घुमाने से भिन्न प्रकार के आकार बनते दिखायी देते हैं-सीधे, चौकोर, अण्डाकार आदि । ये भिन्न भिन्न लम्बे-चौड़े आकार परस्पर मिलकर एक विचित्र तथा मनोरंजक दृश्य का चित्रण करते हैं । प्रबोध बालक ही यह पूछेंगे कि इन विविध प्रकारों की उत्पत्ति कब, कहाँ से और कैसे हुई जब कि समझदार मनुष्य कोई सन्देह नहीं करेंगे क्योंकि 'अलात' के गतिमान् रहने के कारण ये दृष्टिगोचर हुए यद्यपि इनकी वास्तव में कोई उत्पत्ति नहीं हुई । यदि वह जलने वाली लकड़ी न होती तो इन आकारों का कभी पता ही न चलता । उस ( लकड़ी) के कारण ही इनके 'अस्तित्व' का ज्ञान हो सका । अस्पन्दमानमलातमनाभासमजं यथा । स्पन्दमानं विज्ञानमनाभासमजं तथा ॥४८॥ बिना घुमाये जाने पर यह लकड़ी का टुकड़ा किसी प्रकार के आकार नहीं बनाता और न ही इसमें कोई परिवर्तन होता है । ऐसे ही जिस समय चेतना में कोई प्रकम्पन नहीं होता और इसमें कोई विचार-तरंग नहीं उठती तब यह रूप तथा अविकारी रहती है । इस मंत्र में यह बताया गया है कि विशुद्ध चेतना श्रविकारी होने पर भी गतिमान होती तथा बदलती प्रतीत होती है । संसार की बाह्य क्रियाओं For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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