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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७८ ) जात्याभासं चलाभासं वस्त्वाभासं तथैव च । प्रजाचलमवस्तुत्वं विज्ञानं शान्तमद्वयम् ॥४५॥ विशुद्ध चेतन-शक्ति जन्म लेती, अस्थिर रहती या रूप ग्रहण करती हुई प्रतीत होने पर भी अजात, स्थिर और रूप-रहित रहती है । यह प्रशान्त एवं अद्वैत है । जब हम परस्पर-तत्त्व को उपाधि-रहित, सर्व-व्यापक, इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य तथा मन एवं बुद्धि से परे मानते हैं तो नाम-रूप-गुण-सम्पन्न विविध पदार्थों को, जो प्रत्यक्ष रूप से क्रियमाण रहते हैं, हमें क्या समझना चाहिए ? वेदान्त के सिद्धान्त को समझने की उत्कण्ठा रखने वाले नवागन्तुक के मन में इस प्रकार का सन्देह पहले-पहल अवश्य उठता है । यहाँ भगवान् गौड़पाद दृष्ट-संसार की वास्तविकता को समझाते हैं । वे कहते हैं कि विशुद्ध-चेतना अजात होने पर भी विविध नाम-रूप की उपाधि ग्रहण कर के जीवन-क्षेत्र के कालान्तर में जन्म लेती तथा चेष्टाएं करती प्रतीत होती है। सर्व-व्यापक क्रियावान् नहीं कहा जा सकता। किसी विशेष पदार्थ के गतिमान् होने का अर्थ यह है कि वह एक स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थान तक जाता है अर्थात् उसका कालान्तरण होता है । कोई वस्तु एक ही समय दो विविध स्थानों पर ठहर नहीं सकती । एक व्यक्ति एक कुर्सी से दूर पड़ी दूसरी कुर्सी तक पहुँच सकता है किन्तु इन दोनों कुर्सियों पर एक समय में नहीं बैठ सकता । वास्तविक-तत्त्व सभी स्थानों में सर्वदा व्याप्त एवं विद्यमान रहते हुए कहीं जा नहीं सकता किन्तु फिर भी हम अनेक नाम-रूप धारी व्यक्तियों एवं पदार्थों को इधर-उधर घूमता हुआ देखते हैं । अपने मन और इस के द्वारा विषय-पदार्थ संसार से अनुरूपता प्राप्त करने के कारण हमें विविध पदार्थ आदि गतिमान होते दिखायी देते हैं। यह बात इन उदाहरणों के द्वारा अच्छी तरह समझ में आ जायेगी। नाव में बैठे हए हमें नदी के तटवर्ती वृक्ष चलते हुए दिखाई देते हैं। वास्तव में हमारी नाव चलती है न कि वे वक्ष । चलती रेलगाड़ी में बैठे बच्चे तार के For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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