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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७५ ) वेदान्त-शास्त्र को समझने का प्रयास करने वाले ये नवागन्तुक मन तथा बुद्धि का पूरा उपयोग करने पर भी परिपूर्ण एवं अजात-तत्त्व के रहस्य को पहले-पहल समझ नहीं सकते । जब उन्हें यह बताया जाता है कि यह दृष्टसंसार तथा इसके विविध पदार्थ वास्तविक नहीं हैं तो वे स्तम्भित से हो जाते हैं । इस वर्ग के साधकों के व्यक्तित्व को सुदृढ़ करने तथा उनके मन एवं बुद्धि को शनैः शनैः वेदान्त के विद्यार्थी की बुद्धि के स्तर तक ऊंचा उठाने के उद्देश्य से वेदान्ताचार्यों ने कारणवाद का सर्वोत्तम उपयोग करने की क्रिया-विधि को यहाँ अपनाया है । विद्यार्थी की अध्यात्म-शिक्षा में यह एक मध्यवर्ती स्थिति है । जब मध्यम श्रेणी का यह विद्यार्थी विकसित होने पर साधक के स्तर पर जा पहुँचता है और इसके मन में स्थिरता तथा बुद्धि में प्रखरता आ जाती है तब इसे 'अजातावाद' का रहस्य समझाया जाता है । यदि हम शिशु-सम्बन्धी शिक्षा को आधार मान कर एक एम. ए. के छात्र की शिक्षा पर टीका-टिप्पणी करने लगें तो इसमें हमारी मूर्खता का ही प्रदर्शन होगा । एक बालक की शिक्षा की प्रारम्भिक स्थिति में ही उसे वास्तविक ज्ञान नहीं दिया जा सकता । पहले-पहल हमें इस बालक की बुद्धि को इतना विकसित करना होगा कि यह उच्च शिक्षा को प्राप्त करने के योग्य हो जाए। इसी तरह वेदान्त-शास्त्र को अपनाने वाले छात्रों को धीरे-धीरे विज्ञानक्षेत्र में प्रवेश कराया जाता है । इस क्रिया का एक अंग कारणवाद है जिसे महान् प्राचार्य मानते प्रतीत होते हैं । वास्तव में साधक यज्ञ तया उपासना करते रहने के बाद उनके चरणों में उपस्थित होता है। इसलिए प्रारम्भ में ही उसे अजातवाद द्वारा स्तम्भित करना श्रेयस्कर एवं उपयुक्त नहीं दिखायी देता। अजातेस्त्रसतां तेषामुपलम्भाद्वियन्ति ये। जातिदोषा न सेत्स्यन्ति दोषोऽप्यल्पो भविष्यति ॥४३॥ जो व्यक्ति इस 'सत्य' को इस कारण सर्वशक्तिमान् एवं For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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