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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७३ ) विक पदार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती, जैसे किसी वन्ध्या के पुत्र के विवाह में सम्मिलित होना; (ग) वास्तविक वस्तु से वास्तविक वस्तु उपलब्ध नहीं हो सकती, जैसे एक मेज़ दूसरी मेज को जन्म नहीं दे सकती (घ) तो क्या किसी वास्तविक पदार्थ से अवास्तविक पदार्थ की आशा करना मूर्खता नहीं है ? विपर्यासाद्यथा जाग्रदचिन्त्यान्भूतवत्स्पृशेत् । तथा स्वप्ने विपर्यासात् धर्मास्तत्रैव पश्यति ॥४१॥ जिस तरह जाग्रतावस्था में कोई व्यक्ति मिथ्या ज्ञान द्वारा उन वस्तुओं को सच्चा मानने लगता है जिनकी वास्तविकता को सिद्ध नहीं किया जा सकता वैसे स्वप्न देखने वाला व्यक्ति यथार्थ ज्ञान न होने के कारण दृष्ट-पदार्थों की सत्ता को (उस स्थिति में) स्वीकार करने लगता है। इस मन्त्र में जाग्रत एवं स्वप्न अवस्था में कारण-कार्य सम्बन्ध के भाव को पूर्ण रूप से मिटाने की चेष्ठा की गयी है । ये दोनों अवस्थाएँ अवास्तविक हैं । जिस प्रकार जाग्रतावस्था में विवेक न होने से एक विमूढ़ एवं विजृम्भित व्यक्ति पदार्थमय संसार को अनुभव करता और इसे वास्तविक समझने लगता है उसी प्रकार तन्द्रा-ग्रस्त 'बुद्धि' तथा बुद्धि के नियन्त्रण में न रहन वाला 'मन' दोनों मिल कर उन कुत्तों की भाँति कूदने लगते हैं जिन्हें सारा दिन बाँधे रखने के बाद साँझ को खुला छोड़ दिया गया हो । स्वप्नावस्था वह स्थिति है जिसे जाग्रतावस्था के दृष्टिकोण से निरर्थक माना जाता है। फिर भी स्वप्न देखते हुए हम उन्हीं पदार्थों को देखते हैं जो हमें जाग्रतावस्था में दृष्टिगोचर होते रहते हैं। इसी कारण हम इन दोनों अवस्थाओं में कारण-कार्य सम्बन्ध मानने लगते हैं। श्री गौड़पाद यहाँ इनके पारस्परिक सम्बन्ध को निर्मूल सिद्ध कर रहे हैं। यदि जाग्रत एवं स्वप्न अवस्था में कोई समानता दिखायी देती है तो यह है कि इन दोनों स्थितियों में हमें पर्याप्त मात्रा में विवेक उपलब्ध नहीं होता । मनुष्य For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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