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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । २६६, स्वप्न में दिखायी देने वाले पदार्थों की अनुभूति जाग्रतावस्था की वस्तुओं के अनुभव से समानता रखती है; इसलिए कहा जाता है कि स्वप्न की अनुभूति का कारण हमारे जाग्रत-अनुभव हैं जिस से ये (जाग्रतावस्था के अनुभव) स्वप्न-द्रष्टा को ही वास्तविक प्रतीत होते हैं। ___जाग्रत एवं स्वप्न अवस्था में जो अनुभव प्राप्त होते हैं वे वस्तुओं के सम्पर्क में आने से ही प्रतीति में आते हैं । इसलिए इस अनुभूति में तीन बातों का होना आवश्यक है-कर्ता, कर्म और इन दोनों का योजक । यह नियम उन अनुभवों पर लागू होता है जो हमें जाग्रत तथा स्वप्न अवस्था में प्राप्त होते रहते हैं। इस कारण हमारी स्थूल बुद्धि सहसा इस निष्कर्ष पर जा पहुंचती है कि स्वप्न का मूल कारण हमारी जाग्रत अनुभूति है। मेरी प्रेयसी के कण्ठ को सुशोभित करने वाले स्वर्ण-हार की प्रत्येक कड़ी में सोना विद्यमान रहता है; इससे मैं यह समझने लगता हूँ कि उक्त हार का मूल कारण स्वर्ण ही है । ऐसे ही स्वप्नावस्था में कर्ता-कर्म तथा इनके बीच सम्बन्ध बने रहने से मैं यह परिणाम निकाल लेता हूँ कि जाग्रतावस्था के अनुभव से ही स्वप्न की उत्पत्ति होती है । किन्तु यह तर्क अप्रासंगिक है क्योंकि निद्रा से जागने वाला यह घोषणा करने लगता है मानो उसे अलौकिक विवेक की अनुभूति हुई हो । श्री गौड़पाद कहते हैं कि यदि इस युक्ति को मान भी लिया जाये तो यह केवल स्वप्नद्रष्टा द्वारा मुखरित हुई कही जा सकती है। स्वप्न-द्रष्टा वह व्यक्ति है जो स्वप्न देखते हुए इस भाव को प्रकट कर रहा है और अपनी इस प्रक्रिया में स्वप्न-जगत का मूल-कारण जाग्रत-संसार को माने हुए है; किन्तु निद्रा-त्याग के बाद यदि वह इसी तर्क को दोहराता है तो हम उसे जाग्रत नहीं बल्कि स्वप्नजगत में भटकने वाला मानते हैं। केवल स्वप्न देखने वाला मनुष्य जाग्रतावस्था को स्वप्नावस्था से अधिक वास्तविक मानता है । वैसे जाग्रतावस्था स्वत: मिथ्या है; इसलिए इससे वास्तविकता की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती । क्या मृग-तृष्णा का For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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