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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६३ ) बन्धन में फंसे रहना है अर्थात् हम नाशमान हैं तो हमारे लिए कोई ऐसा प्राध्यात्मिक मार्ग नहीं हो सकता जिस पर चल कर हम पूर्ण सफलता (अर्थात् स्थापी परिपूर्णता) प्राप्त कर सकें। ___ इसी प्रकार 'मोक्ष' आदिवान् नहीं हो सकता क्योंकि जो अनादि नहीं उसे अन्तवान् भी अवश्य होना चाहिए; सभी उत्पन्न होने या बनाए जाने वाले पदार्थ नाशमान होते हैं। संक्षेप में विवेक-बुद्धि की सहायता से हमें यह बात माननी पड़ेगी कि पदार्थमय संसार केवलमात्र हमारे भ्रान्ति-पूर्ण मन की उपज है और मन की सीमा को लाँघ लेने पर हर व्यक्ति प्रात्म-साक्षात्कार कर लेता है। आत्मानुभूति कोई नवीन खोज नहीं वरन् हमारे वास्तविक स्वभाव के पुनरन्वेषण का परिणाम है। ___स्वप्न में निर्धनता का अनुभव करने वाले व्यक्ति के लिए यथार्थतः दरिद्र होना आवश्यक नहीं है क्योंकि स्वप्न देखते हुए उसे यह अनुभव वास्तविक प्रतीत होता है । स्वप्न देखने का कारण प्रात्म-विस्मृति तथा मानसिक भावनाओं के संपर्क में आना है । निद्रा का त्याग करते ही भ्रान्त स्वप्न. द्रष्टा अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेता है । तब वह स्वप्न की निर्धनता को स्मरण करके मन ही मन हँसने लगता है । __ ऐसे ही संसार का अनेकत्व, भ्रान्ति-पूर्ण अनुभव, मृत्यु आदि अपने वास्तविक स्वरूप वाली आत्मा के स्वप्न-मात्र हैं क्योंकि मनोमय तथा अन्य स्कूल कोशों से सम्पर्क स्थापित करने पर ही आत्मा को इनकी भ्रान्त होने लगती है । इस भ्रम की निवृत्ति होते ही आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है जिससे यह अपने दुःखों पर उसी प्रकार हँसने लगता है जैसे निद्रा में निर्धनता का अनुभव करने वाला जाग्रत व्यक्ति । निरन्तर अभ्यास करते रहने पर अपने शरीर, मन और बुद्धि से अलग होकर 'आत्मा' वास्तविक जाग्रति अर्थात् मुक्ति की अनुभूति करती है और इसे अपनी बन्धनावस्था के सांसारिक अनुभवों की असारता का ज्ञान हो जाता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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