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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५६ ) भ्रान्ति को दूर करने के साथ काल तथा अन्तर.की निष्फलता को सिद्ध कर यदि एक बार मन की इन सीमानों में किसी एक को लाँघ लिया जाय तो इस (मन) में पदार्थमय संसार का भ्रान्तिपूर्ण विचार नहीं रह सकता और इसके बाद हमें आत्मानुभव हो जाता है । - प्रज्ञप्तेः सन्निमित्तत्वमन्यथा द्वयनाशतः । संक्लेशस्योपलब्धेश्च परतन्त्रतास्तिता यथा ॥२४॥ प्रात्म-ज्ञान का प्रत्यक्ष (विषय-पदार्थ) कारण होना चाहिए अन्यथा दोनों का अस्तित्व नहीं रह सकता । इस युक्ति और क्लेश की अनुभूति के कारण द्वैतवादियों द्वारा मान्य बाह्य पदार्थों की सत्ता को हमें स्वीकर करना पड़ेगा। गत मन्त्र में जिस बात को समझाया गया है उसकी पुष्टि करने के लिए यहाँ एक आपत्ति उठायी जा रही है । 'प्रज्ञप्ति' का अर्थ है वस्तु-ज्ञान, जैसे शब्द, स्पर्श, रूप,रस और गन्ध । यह विषय-प्रधान ज्ञान बाह्य साधन अथवा पदार्थ के अनुरूप होता है । यह विषय-शान किसी बाह्य साधन अथवा सम्बन्धित वस्तु के द्वारा होता है । प्रतिकूल विचार रखने वालों के विचार के अनुसार हम वस्तुमों का ज्ञान प्राप्त करते हैं क्योंकि उनसे सम्बन्धित वस्तुएँ विद्यमान रहती हैं । यदि हम उन वस्तुओं को नहीं देख (अनुभव कर) सकते तो इससे यह समझ जाना चाहिए कि या तो वे वस्तुएँ नहीं है अथवा हममें उन्हें देखने (अनुभव करने) की सामर्थ्य नहीं है । विषय-पदार्थों की वास्तविकता को सिद्ध करने के लिए न केवल 'वस्तुज्ञान की युक्ति दी जाती है बल्कि यह भी कहा जाता है कि यदि पदार्थ-संसार की यथार्थतः उत्पत्ति न होती तो हमें किसी प्रकार का दुःख न होता क्योंकि दुःखमय परिस्थितियों वाले संसार के बने रहने पर ही हम दुःख का अनुभव कर सकते हैं । श्री गौड़पाद के विचारों का विरोध करने वाले, जिन्हें बाह्यअर्थवादी' कहते हैं, बाह्य संसार के पदार्थों की वास्तविकता में दृढ़ विश्वास रखते हैं। उनकी यह धारणा है कि वस्तुओं का ज्ञान होने तथा दुःख For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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