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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४६ ) कारण के कारण का परिणाम कार्य मान लिया जाए तो पुत्र से पिता का जन्म होना संभव होगा जो एक अनहोनी बात है । जहाँ इस बात का होना संभव हो वहाँ ही इस सिद्धान्त का सत्य सिद्ध हो सकता है अर्थात् इसे किसी अवस्था में नहीं माना जा सकसा ।। संभवे हेतुफलयोरेषितव्यः क्रमस्त्वया । युगपत्संभवे यस्मादसम्बन्धी विषाणवत् ॥१६॥ यदि 'कारण' तथा 'कार्य' को (अब भी) सत्य मान लिया जाए तो हमें इन दोनों के क्रम का निर्धारण करना होगा । यदि यह कहा जाए कि ये दोनों एक साथ घटित होते हैं तो ये (किसी) पशु के दो सींगों की तरह एक दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं रख सकते। ___ यहाँ उन मीमांसकों पर प्रहार किया गया है जो पूर्व-कृत कर्मों के फल स्वरूप इस संसार की उत्पत्ति मानते हैं और कहते हैं कि पाने वाले संसार पर हमारे वर्तमान कर्मों की गहरी छाप होगी। सांख्य तथा न्याय-वैशेषिक सिद्धातों का जो तुलनात्मक विवेचन हम पहले कर चुके हैं उससे यह पता चलता है किसी कारण' से 'कार्य' की उत्पत्ति नहीं हो सकती । 'कारण' 'कार्य' के अनुरूप नहीं हो सकता और न ही 'कार्य' को कारण के अनुरूप माना जा सकता है। ऐसे ही मीमांसकों का यह सिद्धान्त अयुक्त एवं तर्क-हीन है कि कार्य से कारण की उत्पत्ति होती है । इसलिए यहाँ श्री गौड़पाद द्वैतवादियों से, जो कारण-कार्य सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं, आग्रह-पूर्वक यह पूछते हैं कि कारण तथा कार्य किस क्रम से घटित होते हैं जिसे मान कर प्रोसत बुद्धि वाले विद्यार्थी की शंका का समाभान हो सकता है। इन दोनों (कारण तथा कार्य) को जो पृथक् मानते हैं उन्हें यह सिद्ध करना आवश्यक होगा कि कार्य से पहले कारण की सत्ता बनी रहती है मौर उसके बाद यह क्रम चलता रहता है। यदि ने इस बात को मानते हैं कि For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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