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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (गुरु के) समीप निम्नस्थान पर बैठना (उप =समीप; नि=नीचे होकर; षद् बैठना) अर्थात् गुरु के पास बैठकर ज्ञान प्राप्त करना। इस अवस्था में शिष्य गुरु से किसी प्रकार की शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक समानता रखने का दावा नहीं करता है बल्कि वह आत्मोत्सर्ग, श्रद्धा और सम्मान की भावना से उसके चरणों में उपस्थित होता है। हर उपनिषद् म एक ही शैली को अपनाया गया है जो एक पिपासाकुल शिष्य और एक सहानुभूति-पूर्ण, दयालु एवं धुरंधर विद्वान् के बीच हुअा वार्तालाप है । किसी उपनिषद् में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष ढंग से इस बात को पूरी तरह नहीं बताया गया है कि क्या इसकी पृष्ठभूमि में किसी गुरु और शिष्य का अस्तित्व था भी या नहीं । माण्डूक्योपनिषद् के प्रारम्भ में ही बताया गया है कि कोई गुरु और शिष्य बैठे हुए 'अतीत' ज्ञान के विषय पर विचार-विनिमय कर रहे हैं । यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से इस बात को नहीं समझाया गया तो भी गुरु-शिष्य सम्वाद के भाव का प्रतिपादन किया गया है जिससे भाव-पूर्ण हृदय वाले पाठक इसे समझ कर मनोरंजन प्राप्त कर सकें। उपनिषदों के अध्ययन के लिए 'गुरु' का होना अनिवार्य है क्योंकि, यद्यपि उपनिषद् सनातन एवं अनन्त 'सत्य' की व्याख्या करने के उद्देश्य से लिखे गये हैं, इसे केवल शब्दों द्वारा ही समझाया जा सकता है । इनमें परिभाषा अथवा स्पष्ट शब्दों द्वारा इस सत्य की व्याख्या नहीं हो पायी है। केवलमात्र सांकेतिक शब्दों द्वारा इसे बताया गया है। किसी शब्द का केवल अर्थ बताने से, चाहे वह कितना ही उपयुक्त क्यों न ही, उपनिषदों के यथार्थ ज्ञान को समझाया नहीं जा सकता । उपनिषदों में कभी यह दावा नहीं किया गया है कि 'सत्य' की परिभाषा सीमित शब्दों द्वारा की जा सकती है। ये शब्द-भण्डार तो ऐसे विचारों की ओर संकेत करते है जिनके द्वारा महर्षि अवर्णनीय की व्याख्या कर सके है अर्थात् उन्होंने हमें परिमित शब्दों द्वारा असीम का दिग्दर्शन कराया है । इस कारण आवश्यक है कि कोई पथ-प्रदर्शक For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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