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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । २३८ ) सांख्यिकी कहते हैं कि यदि इस तथ्य को न माना जाय तो किसी निश्चित् कारण से होने वाले कार्य का परिसीमन नहीं किया जा सकता। उदाहरण रूप से तभी हम झाड़ियों से अंजीर, रेत को कूट कर आमलेट अथवा जल को उबाल कर नवनीत (मक्खन) प्राप्त कर सकेंगे । साथ ही यह भी कहा जाता है कि एक प्रकार के कारण से उसी प्रकार के कार्य की उत्पत्ति हो सकती है जिससे 'कारण' में 'कार्य' का पहले से ही बना रहना सिद्ध होता है और यह सूक्ष्म रूप से वहाँ विद्यमान रहता है । इस तरह 'कारण' और 'कार्य' दोनों मूलतः एक ही हैं। इस विचार-धारा के विपरीत 'न्याय-वैशेषिक' विचार-धारा है जिसका अपना अलग सिद्धान्त है । इसके अनुसार 'असत्-कार्य' सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है जिसे 'पारम्भवाद' भी कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि पदार्थों का नये सिरे से निर्माण होता है । इस सिद्धान्त के अनुयायी कारण में कार्य की सत्ता को नहीं मानते । वे कहते हैं कि यदि कार्य पहले से विद्यमान रहता हो तो उसे व्यक्त करने की क्या प्रावश्यकना है ? सांख्य विचार रखने वालों से उनका यह प्रश्न है कि उनके इस विचार में क्या तथ्य है कि 'कारक-व्यवहार' द्वारा पात्र को मिट्टी में से व्यक्त किया जाता है । वे सांख्यों के इस तर्क का खण्डन करते हैं कि कार्य का, जो कारण में पहले से बना रहता है, निर्माण होता है । उनके विचार में इसका यह अभिप्राय होगा कि मिट्टी और पात्र एक ही वस्तु हैं भोर एक दूसरे से भिन्न भी । एक पालो वक ने तो यहाँ तक कहा है कि साँस्य-सिद्धान्त गालों के विभिन्नता में समता पाने वाले इस विचार को मानना एक परस्पर-बिरोधी बात को स्वीकार करना होगा। इस तरह न्याय-वैशेषिक विचार माले कार्य को कारण से एकदम भिन्न मानते हैं क्योंकि (उनके विचार में) 'कार्य' उसी समय रहता है जब उसे क्रियान्वित किया जाय । यहाँ हमें भी इस बात को जान लेना चाहिए कि इस विचारधारा For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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