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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२२ ) लये संबोधयेत् चित्तं विक्षिप्तं शमयेत्पुनः । सकाषायं विजानीयात्समप्राप्तं न चालयेत् ॥४४॥ इम 'लय' अवस्था में हम अपने मन का उद्बोधन कर लेते हैं। इसमें विक्षेप होने पर हम इस (मन) को शान्त कर लेते हैं। इन दोनों की मध्यवर्ती अवस्था में हम इस बात का ज्ञान रखते हैं कि इस (मन) में बलवती अव्यक्त इच्छाएँ भरी पड़ी हैं । (इन खन बातों का ध्यान रखते हुए) जब हमारा मन सन्तुलनावस्था को प्राप्त कर ने तब इसे चलायमान न करें अर्थात् इसे वहां ठहरने दें। इस मंत्र में सत्य-मार्ग को अपनाने वाले यात्री के लिए उन सभी विस्तृत निर्देशों का समावेश कर दिया गया है जिन्हें जानना उसके लिए अनिवार्य है। 'साधन' की प्रारम्भिक स्थिति में मन धीरे-धीरे शान्त हो जाता है किन्तु तब इस पर प्रशान की धुध या जाती है जिससे यह गिरता हुआ 'लय' के तिमिरावत क्षेत्र में जा पहुँचता है । यहाँ यह समझाया गया है कि साधक अपने मन को 'लय' से जगाता तथा सक्रिय रखता रहे । जब हम अभ्यास द्वारा मन की इस दुर्बलता पर विजय पा लेते हैं तब यह (मन) फिर 'लय' के गर्त में अपने पाप गिरने नहीं पाता । इस अवस्था में साधक के मार्ग में एक और बाधा आ खड़ी होती है और वह यह है कि हमारा उबुद्ध मन एकाग्रता को प्राप्त करते हुए भी वहाँ अधिक देर तक ठहर नहीं पाता और स्वतः विविध विचार-धारागों म भाग निकलता है । यह बीती स्मृतियों, वर्तमान भोगों और कल्पित सुखों को स्मरण करके इधर-उधर भटकने लगता है । मन की इस विक्षिप्तावस्था में, जैसा गत मंत्र में कहा गया है, हमें इसे समझाते रहना चाहिए जिससे हम उन मिथ्याभासों से पृथक् रह सकें। यथार्थ रूप से 'ध्यान' के उत्तुग शिखर पर पहुँच जाने के बाद हमे विवेक-बुद्धि द्वारा इसे अधिक से अधिक For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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