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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१३ ) यहाँ श्री गौड़पाद ने वेदान्त-साधना के लिए 'अस्पर्श योग' के अद्वितीय शब्द का प्रयोग करके निज बुद्धि चातुर्य्यं का अनुपम प्रमाण दिया है । कई श्रालोचक कहते हैं कि ऋषि ने यह शब्द बौद्ध साहित्य से लिया है क्योंकि शास्त्रों में इस तरह का कोई शब्द नहीं मिलता। टीका-टिप्पणी करने वाले व्यक्तियों ने तो बौद्ध ग्रन्थों से कई हवाले दे कर यहाँ तक कह दिया है कि भगवान् गौड़पाद ने इसे वहाँ से नकल किया है । इस ग्रंथ को सहृदयता से समझने वाले वेदान्त-प्रेमी इस विचार से सहमत नहीं हैं । हमें 'श्रीमद्भगवद्गीता' में प्रत्यक्ष रूप से पता चलता है कि पांचवें अध्याय के २१, २२ और २७वें श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण ने 'स्पर्श' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ इन्द्रियों द्वारा मन का बाह्य पदार्थों से संपर्क स्थापित करना है। गीता का ज्ञान होने के कारण ऋषि ने यह शब्द स्वयं गढ़ा होगा । 'श्रीमद्भगवद्गीता' में 'स्पर्श' का उपयोग उस मानसिक स्थिति को समझाने के लिए किया गया है जिसके द्वारा प्रत्येक विमूढ़ व्यक्ति विषयपदार्थों से सम्बन्ध स्थापित तथा हर्ष या विषाद की अनुभूति करता रहता है । बाह्य संसार के पदार्थों में स्वतः किसी विशेष अनुभूति की प्राप्ति कराने की क्षमता नहीं है । बात यह है कि अनुभव - कर्त्ता ग्रात्माभिमानी इन्द्रियों के मार्ग से बाहिर जा कर स्थूल संसार से संपर्क स्थापित कर लेता है । हम स्वयं विम्भित हो कर मिथ्या भावनाओं का शिकार होते हैं जिस से ये विषय-पदार्थ हमसे ही बल पाकर हमें विविध यातनाओं से पीड़ित करते रहते हैं । गीता के पाँचवें अध्याय में इस विचार की बड़ी सुन्दरता से व्याख्या की गयी है । श्रात्मानुभूति की वेदान्त-सम्बन्धी प्रक्रिया को हमारे हृदय पटल पर अंकित करने के लिए ही श्री गौड़पाद ने यहाँ 'अस्पर्श-योग' का प्रयोग किया है | बौद्धिक विश्लेषण और यथार्थ ज्ञान की प्रक्रिया द्वारा मन का इसके For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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