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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २०८ ) वास्तविक रूप को जान लेता है । बादलों के एक ओर हट जाने पर सूर्य को प्रज्ज्वलित करने की आवश्यकता नहीं रहती। किसी तालाब के जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब देखने के लिए उस (जल) के ऊपर से 'काई' को हटा देना ही पर्याप्त होता है । जब काई को हटा कर हम स्वच्छ जल को देखने लगते हैं तब सूर्य-देव स्वयमेव उसमें प्रतिबिम्बित हो जाते हैं न कि हम उन (सूर्य-देव) का आवाहन करने बैठते हैं । वह (सूर्य) तो पहले से वहाँ प्रतिबिम्बित हो रहा था; केवल उसे काई ने ढाँपा हुआ था । ऐसे ही हमें अपने भीतर आत्मा को निरावरण करना होगा। प्रात्मा शाश्वत एवं सतातन-तत्त्व है जिसके बिना यह शरीर न तो जन्म ले सकता और न ही निज सत्ता रखता हुआ क्रियमाण हो पाता है । इसमें कोई विचार विवक, भाव आदि नहीं रह सकता है । हम विवेक विचारादि को ध्यान द्वारा कहीं बाहिर से अपने भीतर नहीं लाते । 'ध्यान' वह क्रिया-विधि है जिसके द्वारा हम मन को स्थिर करके अपनी मानसिक दुर्बलताओं को दूर करते हैं। चलायमान न होने वाला हमारा मन जब विशुद्ध-ज्ञान का ध्यान धरता है तब मन की इति हो जाती है । 'मन' तो हमारे भीतर के अज्ञान को व्यक्त करने का साधनमात्र है। इसका अस्तित्व न रहने पर अज्ञान कहीं ढूंढे भी नहीं मिलता । इस (अज्ञान) के तिमिराच्छन्न सांकरे मार्ग के अन्त में अपने आप प्रकाशमान परम-ज्ञान का प्रदीप्त केन्द्र स्थान स्थित है। सर्वाभिलापविगतः सर्वचिन्तासमुत्थितः । सुप्रशान्तः सकृज्ज्योतिः समाधिरचलोऽभयः ॥३७॥ यह (प्रात्मा) मन के द्वारा व्यक्त, शब्द-बद्ध तथा ग्राह्य नहीं होता । यह सब प्रकार प्रशान्त, सदा ज्योतिर्मान, निष्क्रिय तथा निर्भय है । इसको सम-बुद्धि (समाधि) द्वारा प्राप्त किया जाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंत्र में हमें यह समझाया गया है कि इस For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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