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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६४ ) अनेकत्व का खण्डन किया है । इस मन्त्र में प्राचार्य हमें यह समझाने का प्रयत्न कर रहे है कि पदार्थमय जगत की हमें क्यों और कैसे अनुभूति होती है । आप बलपूर्वक इस विचार को प्रकट करते हैं कि इस (दृष्टसंसार) की उत्पत्ति परमात्म-तत्त्व ने नहीं होती बल्कि हमें माया के कारण यह भासित होता है । सृष्टि को वास्तविक मान लेने पर हमें किन किन तार्किक विषमताओं से जूझना पड़ता है इस बात पर यहाँ प्रकाश डाला गया है। यदि ऐसा होना मान लिया जाय तो तर्क द्वारा इसे सिद्ध करना एक असंभव बात होगी। वास्तव में यह अनादि एवं अनन्त शक्ति अजात तथा अविकारी है । यदि हम यह मान लें कि इससे किसी वस्तु की उत्पत्ति हुई है तो हमें यह मालूम करना होगा कि उस कारण का कर्ता कौन था जिसके द्वारा इस (परम-सना) में विकार आया और परिणाम प्रत्यक्षीभूत हुया । यदि हम यह कहते हैं कि परमात्मा से सृष्टि का जन्म हुआ तो हमें यह जानना होगा कि इस स्रष्टा को जन्म देने वाला कौन था और फिर उसे किसने जन्म दिया ? इस तरह हमारे लिए आदि-कारण को जानना असम्भव हो जायेगा । इस कारण-कार्य की भीषण भंवरों में फंस कर हम इनमें ही डूब जायेंगे । असतो मायया जन्म तत्त्वतो नैव युज्यते । वन्ध्यापत्रो न तत्त्वेन मायया वापि जायते ॥२८॥ असत का जन्म वस्तुतः अथवा माया के कारण कभी नहीं हो सकता, जैसे एक बाँझ स्त्री के यथार्थ रूप में या माया से पुत्र का होना असंभव है । ___'कारणत्व' को स्वीकार करने और परमात्म-तत्व को जन्मदाता मानन को सब प्रकार से उपयुक्त कहा जा चुका है । अब हम इस विचार पर दृष्टिपात करेंगे कि क्या वास्तविक तत्व को 'प्रसत' का कारण मानना न्यायसंगत होगा । श्री गौड़पाद इस 'असत' परमात्म-तत्व में 'कार्य-कारण' की संभावना को मानने से साफ़ इन्कार करते हैं। जो स्वयं प्रसत है वह वस्तुतः अथवा For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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