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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८६ ) न भवत्यमृतं मयं न मर्त्यममृतं तथा । प्रकृतेरन्यथाभावो न कथंचिद् भविष्यति ॥२१॥ 'अमर्त्य' कभी 'मयं' नहीं हो सकता और न ही 'मर्त्य' कभी 'अमर्त्य' हो सकता है क्योंकि अपने वास्तविक स्वरूप को रखते हुए कोई वस्तु किसी विकार को प्राप्त नहीं हो सकती। यदि हम 'अमर्त्य' को 'मर्त्य' मान लें तो हम इसके वास्तविक रूप से अपरिचित होने का प्रमाण देंगे क्योंकि प्रकृति का नियम है कि कोई पदार्थ अपने स्वरूप को बनाये रखने के साथ किसी अन्य रूप को ग्रहण नहीं कर सकता । 'उड़ने वाले पर्वत', 'अग्नि समान उष्ण हिम'-ये असंभव बातें केवल उस व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज होंगी जिसकी बुद्धि का पूरी तरह दिवाला निकल चुका हो । ये सब प्रकृति के नियमों के प्रतिकूल है । यदि तवादियों के इस विचार को मान लिया जाए कि 'अमर्त्य' बदल कर 'मर्त्य' हो सकता है तो हमें इस बात को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि पर्वत उड़ सकते हैं। स्वभावनामृतो यस्य भावो गच्छति मर्त्यताम् । कृतकेनामृतस्तस्य कथं स्थास्यति निश्चलः ॥२२॥ स्वभाव से 'अमर्त्य' रहने वाले तत्त्व को 'मर्त्य' मानने वाला व्यक्ति किस प्रकार इस धारणा पर भी दृढ़ रह सकता है कि विकार होने पर यह तत्त्व अपने वास्तविक रूप को ज्यों का त्यों बनाए रखता है ? __ यहाँ टीकाकार ने इस दार्शनिक दावे को स्वीकार करने में कुछ और बातें कहीं हैं। ऐसी धारणा के वास्तविक महत्त्व को सुगमता से समझना संभव है। 'द्वैतवादी' यह भावना रखते हैं कि परम-तत्व से दृष्ट-संसार की उत्पत्ति करने के लिए अमृत-तत्व में विकल्प होता है। इस पर भी वे इस वास्तविक सत्ता को अविकारी तथा शाश्वत मानते हैं। कोई सामान्य बुद्धि का मनुष्य For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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