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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७६ ) बुद्धि के सीमित क्षेत्र में रहते हए इनके अस्तित्व को अनभव करते हैं। वास्तव में इनमे उतनी यथार्थता है जितनी हमारे स्वप्न-दष्ट पदार्थों की । यह जानना एक व्यर्थ प्रयास होगा कि इन तीनों की उत्पत्ति कहाँ से हुई; फिर भी हमारी परिमित विवेक-बुद्धि इनके कारण को जानकर ही सन्तुष्ट हो सकती है। इन (तन, मन और बुद्धि) का कोई कारण न होने से महान् शास्त्र हमें इतना ही बताते हैं कि इनकी उत्पत्ति वास्तविकता के प्रति हमारे प्रज्ञान से हुई । अज्ञान का कोई व्यक्तित्व नहीं । यह न वास्तविक है और न ही अवास्तविक । बुद्धि को अस्थायी रूप से सन्तोष देने के उद्देश्य से इस (प्रज्ञान) की मिथ्या कल्पना की गयी है और अनुभूत विविधता को सच्चा मान कर इसका कारण बताया गया है । इसलिए दूसरी पंक्ति में श्री गौड़पाद ने कहा है कि इनकी वास्तविकता अनिश्चित है। हम यह नहीं कह सकते कि वे मिथ्या नाम-रूप 'प्रात्मा' से अधिक वास्तविक हैं। ___यह सब कहने का यह अभिप्राय है कि हम निश्चय ही सर्प तथा रज्जु और भूत तथा खम्भे के रूप को नहीं जान सकते । साँप और भूत का कोई अस्तित्व नहीं । यदि हम इनकी कल्पना करते हैं तो ये रस्सी और खम्भे मे आरोपमात्र हैं। यदि रज्जु और खम्भा वास्तविकता लिये हए हैं तो सर्प और भूत की उतनी ही यथार्थता है-यह धारणा सत्ता के कारण होती है क्योंकि जब तक हमें सत्य का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक रज्ज और खम्भे का अस्तित्व हमें प्रतीत रहीं होता । ऐसे ही तन, मन और बुद्धि वस्तुतः परम-तत्त्व है किन्तु इनकी सत्ता हम इस कारण मानने लगते हैं कि हमको अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं। रसादयो हि ये कोशा व्याख्यातास्तत्तिरीयके । तेषामात्मा परो जीवः खं यथा संप्रकाशितः ॥११॥ परम-जीव, जो अद्वैत आत्मा ही है अन्नमय, प्राणमय, मनोमय आदि कोशों में रहने वाली सत्ता है । इन कोशों की विस्तृत व्याख्या तैत्तिरीयोपनिषद् में की गयी है । इस परमात्म For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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