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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०२ ) खो कर दही का रूप ग्रहण कर लेता है । दही से पुनः दूध नहीं निकाला जा सकता । इस प्रकार परम-सत्ता में, जिसे हम सनातन तथ। अविनाशी मानते हैं, किसी प्रकार का रूपान्तर नहीं हो सकता । यदि हम यह मान लें कि इसमें परिवर्तन होने से विभिन्न जीव प्रकट हुए हैं तो इस मर्त्य-लोक में प्रमतत्व की प्राप्ति के लिए किसी प्रकार की इच्छा नहीं हो सकती क्योंकि अविनाशी के नष्ट होने पर ही संसार की सृष्टि हो सकती है और जब संसार का प्रादुर्भाव हो गया तो प्राणी किस परम-तत्त्व की आराधना करेंगे ? वह शक्ति तो अपना रूप बदलने के कारण नष्ट होगयी ! 'घटाकाश' बनने के लिए व्यापक आकाश का न तो कोई विभाजन हुआ पोर न हो उसमें 'दही' जैसा विकार हुग्रा । 'घटाकाश' ही व्यापक' आकाश है । इस तरह यह जीवात्मा परम-तत्त्व ही है । इस रहस्य को न समझने के कारण मैं अनेक दुःख सहन करता रहता हूँ । इसे जान लेना हो 'ज्ञान' कहलाता है। ___ अपने आपको जान कर अपना जार्णोद्धार कीजिए । अज्ञान वाला जीवन न होने के तुल्य है । यह जीव 'आत्मा' का विकृत रूप नहीं और न ही इसे मात्मा का अवयव कहा जा सकता है । यहाँ इस भाव की पुष्टि करके वेदान्त के सिद्धान्त की स्थिरता को स्पष्ट और अन्य सभी विचार-धारागों का सफलता पूर्वक खण्डन किया जा रहा है । इस उदाहरण से हमें यह पता चलता है कि वास्तविक स्वरूप को हम से अलग रखने वाला अज्ञान (जीव) है और आत्म-स्वरूप को जानना हो परम-सत्य है। यथा भवति बालानां गगनं मलिनं मलैः । तथा भवत्यबुद्धानामात्माऽपि मलिनो मलैः ॥८॥ जिस प्रकार अबोध बालकों को आकाश मलीन एवं दूषित दिखायी देता है वस ही अज्ञान-तिमिर के कारण अन्धे हुए व्यक्तियों को आत्मा म मलिनता का आभास होता रहता है। आकाश में बादलों की सापेक्ष स्थिति को न जानने के कारण अपरिपक्वबुद्धि बालक इन बादलों में प्राकाश मान बैठते हैं जिससे उन्हें आकाश दूषित प्रतीत होने लगता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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