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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६८ ) पर मनुष्य को प्रात्म-तत्त्व की अनुभूति होती है और वह 'ससीम' से 'असीम' में प्रवेश करता है। - यथैकस्मिन्घटाकाशे रजोधूमादिभिर्युते । न सर्वे संप्रयुज्यन्ते तद्वज्जीवाः सुखादिभिः ॥५॥ ... किसी घटाकाश को धूम्र अथवा मलिन वस्तु से दूषित करने पर विश्व के अन्य घटाकाश दूषित नहीं होते । इस तरह व्यक्तिविशेष के सुख-दुःख अन्य व्यक्तियों को सुखी अथवा व्यथित नहीं रखते । एक मनुष्य की मनोभावना दूसरे व्यक्तियों के अनुभव से समानता नहीं रखती। कल्पना कीजिए कि इस पंडाल में उपस्थित सज्जनों में से एक व्यक्ति उठ कर श्री गौड़पाद की इस युक्ति पर आपत्ति करते हैं । यह महाशय एकजीव-भाव के सिद्धान्त के पक्ष में निज विचार प्रकट करते हैं। इस कोटि के प्राणी जीवात्मा की पृथकता में विश्वास रखते और कहते हैं कि सब जीवात्मा मिल कर विराट-जीव की रचना करते हैं । इनके विचार में विभिन्न दिखाई देने वाले 'जीव' वस्तुत: एक ही स्वरूप रखते हैं और परम-जीव ब्रह्म कहलाता है। यह विचार-धारा वेदान्त से मौलिक भेद रखती है यद्यपि एक अशिक्षित व्यक्ति इन दोनों में समानता देखता है। इनमें स्पष्ट रूप से भेद पाया जाता है और एक तार्किक की दृष्टि में इनमें महान् अन्तर है । एक-जीव-सिद्धान्त के विपरीत वेदान्तवादी एक-अात्मा-भाव में विश्वास रखते हैं । परम-चेतना को सर्वव्यापक मानने के साथ परम-जीव के अस्तित्व की धारणा करना दो विपरीत भाव हैं । प्रात्म-तत्त्व की व्यापकता पर शंका करने वाले ये व्यक्ति कहते हैं कि यदि 'आत्मा' एक ही है तो एक महात्मा अथवा ऋषि द्वारा प्रात्मानभति होने पर सभी सन्त-महात्माओं को तुरन्त आत्म-साक्षात्कार हो जाना चाहिए क्योंकि उनमें भी वही आत्मा सत्तारूढ़ है। यद्यपि यह युक्ति यथार्थ प्रतीत होती है किन्तु इसमें लेशमात्र बुद्धिमत्ता अथवा उपयुक्तता नहीं पायी जाती । इस महान् सत्य को हमारे जैसे स्थूल बुद्धि For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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