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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५४ ) प्रस्तुत मन्त्र के उत्तरार्द्ध का अर्थ करने में वर्तमान पण्डित वर्ग ने अनर्थ किया है । क्योंकि इसमें उन्होंने अनेक प्रसंगत धारणाओं का समावेश कर दिया है । उदाहरण रूप से इस समुदाय का यह भाव ही लीजिए"गौड़पाद यहाँ कहते हैं कि अद्वैत तत्त्व को अनुभव कर चुकने के बाद सिद्ध पुरुष जड़वत जीवन व्यतीत करे । उस समय ऐसे व्यक्ति के लिए अपने युग के सर्व साधारण का पथ-प्रदर्शन करने से सम्बन्धित कोई कार्य्यं शेष नहीं रह जाता ।" जब पूर्णता, त्याग तथा ज्ञान से युक्त सिद्धाचार्य अपने भक्तों को शुद्ध शास्त्र ज्ञान देने के लिए संसार में क्रियाशील होते हैं तब ऊपर कहे गए 'पण्डित' इस मन्त्र का यह अर्थ करके इसे मनवाना चाहते हैं, ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि जब 'जनता' शास्त्रों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके धर्म-विज्ञान से परिचित हो जाती है तब स्वार्थान्ध 'पण्डित' श्रद्धालु प्रशिक्षित समाज को धोखा नहीं दे सकते । वस्तुतः इतिहास ऐसे महान् द्रष्टायों से सम्बन्धित अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है । इन्हें हम जितना अधिक समझते है उतना अधिक हमें यह पता चलता है कि संसार के सांस्कृतिक विकास का समूचा इतिहास इन्हीं प्राध्यात्मिक व्यक्तियों के अमूल्य अंशदान से बना है । यदि हम संसार के सभी महान् धर्मों में से मनुष्य को दिये गये कल्याणमय तत्त्वों को एक ओर निकाल कर रख दें तो शेष ऐसा अव्यवस्थित समाज रह जायेगा जिस में पाशविक प्रवृत्ति वाले नर-दानव अशिष्टता का जघन्य ताण्डव करते दिखायी देंगे । तो फिर महर्षियों के इन शब्दों का क्या अर्थ हुआ कि "संसार में चेतनाहीन व्यक्तियों की तरह व्यवहार करो।" इसका यही अर्थ हो सकता है कि इस श्रेणी का महान् व्यक्ति (अनुभव प्राप्त कर लेने पर ) न तो सांसारिक समस्याओं से दुःख अनुभव करेगा और न ही वह किसी सामयिक तत्त्वज्ञान को बिना सोचे समझे तुरन्त स्वीकार कर लेगा । इन दोनों पहलुनों में मानसिक तथा विवेकपूर्ण सन्तुलन रख कर वह जीवन की समस्यानों से जूझता हुआ इन दुःखों के स्रोत को समझने में प्रयत्नशील होता है । वह तो दृढ़ विश्वास एवं पूर्ण शक्ति से मौलिक दोषों की घोषणा करके उनके प्राध्यात्मिक निदान की व्यवस्था कर देता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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