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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५० ) गया है (कि शरीर ही वास्तविक-तत्त्व है और जीवन का एकमात्र ध्येय इन्द्रियसुख है। बल्कि जीवन के उस मार्ग की भी व्याख्या की गयी है जिस पर चल कर अधिक से अधिक इन्द्रिय-भोग का आनन्द लिया जा सके । 'प्रकरण-ग्रन्थ' की साहित्यिक जिज्ञासा को अपने सामने रखते हुए श्री गौड़पाद ने वेदान्त के विद्यार्थी के लिए प्राध्यात्मिक साधन से सम्बन्धित विस्तृत हिदायतें दी हैं । प्रत्येक अध्याय के अन्त में कुछ ऐसे श्लोक दिये गये हैं जिन में विस्तृत निर्देश स्पष्ट भाषा में पाये जाते हैं। प्रस्तुत अध्याय में ऊपर दिये गये मंत्र सहित चार मन्त्रों की क्रम-माला की व्यवस्था की गयी है जिस में उस साधन का निश्चित वर्णन है जिसे अपनाने से साधक मिथ्या संसार से ऊपर उठकर सर्वव्यागक 'अद्वैत-तत्त्व' को अनुभव कर सकता है। पिछले मंत्र में हमें उन विद्वानाचार्यों का मत बताया गया था जिन्होंने उपनिषदों में वर्णित महान ध्येय की अनुमति की। इस विचार की व्याख्या करने के साथ साथ यहाँ मन एवं बुद्धि को उन अावश्यक विशेषताओं का उल्लेख किया गया है जिन्हें धारण करने पर हम ऋपियों के उच्च स्तर तक पहुँच सकते हैं । यहाँ विस्तार से इन महान्-द्रष्टानों के जीवन का मूल्यांकन किया गया है। यहाँ इन सुविख्यात तत्त्व-वत्तानों को “राग, भय तथा क्रोध से रहित' कहा गया है । हमारे मानसिक क्षेत्र में अविद्या तथा मिथ्यात्व का साम्राज्य स्थापित रहता है अर्थात् हमारे भीतर नकारात्मकता का पुज विद्यमान रहता है। जब हम में पाशविक प्रवृत्ति अधिक मात्रा में पायी जाय तब हम अपने अज्ञान का उचित अनुमान लगा सकते हैं। हमारी नकारात्मकता अथवा अविद्या हमारे जीवन में उस समय प्रकट होती है जब हमारा आध्यात्मिक एवं विज्ञानमय व्यक्तित्व राग, द्वेष आदि की भावना को व्यक्त करे । हमारी पशु-प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने का साधन 'राग' है। किसी बाह्य-पदार्थ को प्राप्त करने की लालसा इसलिए फूट पड़ती है कि हम इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य स्थूल पदार्थों को ही 'पूर्ण-तत्त्व' मान बैठते हैं। अभी तक हमारा किसी ऐसे व्यक्ति से परिचय नहीं हुआ जो अपनी छाया से इसलिए प्रेम करने लगा हो कि यह उसका अपना ही स्वरूप है । For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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