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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ११८ ) अथवा कामनाओं के रूप में पहले से ही विद्यमान होते हैं । ऐसे ही 'आत्मा' अपने मन को अपने भीतर करके विविध भावों तथा पदार्थों की कल्पना करता है। ___ हमारे भीतरी मिथ्या जगत का द्रष्टा, ज्ञाता और साक्षी कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री गौड़पाद यहाँ दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि यह 'आत्मा' ही द्रष्टा है । वेदान्त का अध्ययन करने के नाते हमें इस मन्त्र से किसी प्रकार का भ्रम नहीं होना चाहिए क्योंकि यहां कहा गया है कि "प्रात्मा अपमे मन को अन्तर्मुख' करता है । वास्तव में आत्मा का कोई मन नहीं है । मन तो आत्मा में आरोपमात्र है और जब यह (मन) बहिर्मुख होता है तो विविध स्थूल पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं । आत्मा तो सर्वव्यापक है । इसका यह अर्थ है कि हमारी चेतना-शक्ति मन तथा बुद्धि को उपाधि प्रहण करके (अर्थात् जीवात्मा के रूप में) बाह्य संसार को देखती रहती है जिससे इसे पदार्थमय संसार भासित होता है। इस तरह मन एवं बद्धि के उपकरण से अपना सम्बन्ध स्थापित करने पर 'आत्मा' एक पृथक् व्यक्तित्व ग्रहण कर लेता है जिसे 'जीव' कहा जाता है। यह जीवात्मा अपनी वासनामों में से देखता हुआ विविध पदार्थमय अन्तर्जगत को अनुभव करके इसमें अपने राग-द्वेष,स्पृहा-ईर्षा आदि असंख्य आवेगों का आरोप करता रहता है । इस प्रकार इसे अनेक अनुभव प्राप्त होते हैं । इन मिथ्या अनुभवों का योग-फल ही जोवन कहा जाता है जिसकी जाग्रतावस्था में हमें अनुभूति होती रहती है । यदि यह जीवन-केन्द्र 'प्रात्मा' क्रियमाण न हो तो हमारा मन इस शरीर की सहायता से कुछ भी न देख पायेगा जिससे हमें किसी भी अनुभव की प्राप्ति न हो सकेगी । इस कारण यह कहना न्याय-संगत होगा कि सभी मिथ्यात्व तथा असत् अनुभवों की मूलआधार यह दिव्य चेतना-शक्ति ही है । वास्तव में बहिर्मुखी होने से ही अनेकता का अनुभव हो पाता है । इस भाव को अन्य उपनिषदों में भी बड़ी योग्यता से समझाया गया है । For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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