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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 73 (प्रव. चा. ५९) उवरिट्ठाण न [उपरिस्थान] ऊर्ध्वस्थान, ऊँचा स्थान। जम्हा उवरिट्ठाणं, सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। (पंचा. ९३) उवरिल्लय वि [उपरित] उपरिम, ऊपरीभाग। (दा.२८) भाव अर्थ में इल्ल और उल्ल प्रत्ययों का प्रयोग होता है। उवलंभ पुं [उपलम्भ] लाभ, प्राप्ति। एयत्तस्सुवलंभो। (स.४) उवलंभ सक [उप+लभ प्राप्त करना, जानना। उवलंब्भंतं (व. कृ. स.२०३) उवलद्ध वि [उपलब्ध] उपलब्ध, प्राप्त,विज्ञात, ग्रहण किया हुआ। (प्रव.८१, मो.१, द.१५) उवलद्धं तेहिं कहं। । उवलद्धि स्त्री [उपलब्धि] प्राप्ति, उपलब्धि। (स.१३२) सम्मत्तादो णाणं, णाणादो सब्वभावउवलद्धी। (द.१५) उववज्ज अक [उप+पद्] उत्पन्न होना। उववज्जिऊण। (सं कृ. भा.२७) उववास पुन [उपवास] उपवास, व्रत विशेष, इन्द्रिय संयम के लिए एक उपाय, अनाहार। (प्रव. ६९) उववासादिसु रत्तो। (प्रव. उवसंत वि [उपशान्त क्रोधादि भाव से रहित, नीचे दबा हुआ। उवसंतखीणमोहो। (पंचा.७०) उवसंपय सक [उप+संपद्] प्राप्त होना। उवसंपयामि सम्म, जत्तो णिव्वाणसंपत्ती। (प्रव.५) उवसग्ग पुं [उपसर्ग] उपद्रव, उपसर्ग, व्यवधान, बाधा। णवि इंदिय For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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