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आस अक [आस्] बैठना, स्थित होना, प्राप्त होना। आसेज्ज (व.प्र.ए.) आसेज्ज (वि.प्र.ए.प्रव.चा.१२) आसिज्ज (वि.प्र.ए.प्रव.चा.२) आसेज्जालोचित्ता। (प्रव.चा.१२) आसण न [आसन] स्थान, जगह, जिस पर बैठा जाए। (बो.४५,द्वा.३) आसणाइ (प्र.ब.) (हे.जस्शस् इँ-ई-णयः सप्राग्दीर्घाः ३/२६) हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई। (बो.४५) आसत्त वि [आसक्त] तल्लीन, तत्पर। (भा.१६)
मेहुणसण्णासत्तो, भमिओ सि भवण्णवे भीमे। (भा.९८) आसम पुं [आश्रम] मुख्यस्थान, आधार, मुख्यध्येय । प्रवचनसार में कहा है-पंचपरमेष्ठी के स्वरूप को ध्याने वाले को दर्शन, ज्ञान प्रधान आश्रम की प्राप्ति होती है। तेसिं विसुद्धदसणणाणपहाणासमं समासेज्ज। (प्रव.५) आसय पुं [आश्रय] आधार, अवलम्बन। (चा.४४)
सम्मत्तसंजमासयदुण्हं। (चा.४४) आसय [आशय] मन, चित्त, हृदय, अभिप्राय, बुद्धि। आसयविसुद्धी। (प्रव.चा.२०) -विसुद्धी वि [विशुद्धि] चित्त की निर्मलता। ण हि णिरवेक्खो चाओ, ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी। (प्रव.चा.२०) आसव अक [आ+सु] धीरे-धीरे झरना, टपकना। आसवदि जेण पुण्णं, पावं वा अप्पणोधभावेण। (पंचा.१५७) आसव पुं [आस्रव कर्मों का प्रवेश द्वार, कर्मबन्ध । पावस्स य आसवं कुणदि। (पंचा.१३९) आसवाणं (ष.ब.स.७१) -णिरोह वि
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