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आरुहइ सव्वत्थ। (बो.५५) । आरूढ वि [आरूढ] स्थित, चढ़कर। (स.२३६, बो.२८) विज्जारहमारूढो। (स.२३६) आरोग्ग न [आरोग्य] निरोगता। आरोग्गं जोव्वणं बलं तेजं। (द्वा.४) आलय पुंन [आलय] घर, मकान। (बो.४२) आलंबण न [आलम्बन] आश्रय, आधार। आलंबणं च मे आदा, अवसेसं च वोसरे। (निय.९९, भा.५७) -भाव पुं [भाव आलम्बनभाव। अप्पसरूवालंबणभावेण। (निय.११९) आलविद वि [आलपित] कथित, उपदिष्ट। जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो। (स.१०८) आलुचण वि [आलुज्वन] आलुञ्चन। (निय.१०८) आलोच सक [आ+लोच्] आलोचना करना। आलोचेउ। (हे.कृ.ती.भ.८) आलोचित्ता (सं.कृ.प्रव.चा.१२) आलोचेयदि (व.प्र.ए.स. ३८६) आसेज्जालोचित्ता। (प्रव.चा.१२) आलोयण न [आलोचन] कृतकर्मों का प्रायश्चित, विचार, चिंतन। जो दोष को छोड़ता है और आत्मा का अनुभव करता है, वह आलोचना है। तं दोसं जो चेयदि, सो खलु आलोयणं चेया। (स.३८५) -पुब्बिया स्त्री [पूर्विका] आलोचनापूर्वक। जायदि जदि तस्स पुणो, आलोयणपुब्बिया किरिया। (प्रव.चा.११) आवण्ण वि [आपन्न] प्राप्त, आश्रित। (पंचा. ३१, स.१३९, निय.१४०, भा.१११) सियलोग सव्वमावण्णा। (पंचा.३१)
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