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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 334 (निय.१०३, चा.२३) जो समस्त सावद्य---पाप सहित कार्यों से विरत है, तीन गुप्तियों का धारक है तथा जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है उसके सामायिक होती है। (निय.१२५) सायर पुं [सागर] समुद्र, रत्नाकर। सायरसलिला दु अहिययरं। (भा.१८,१९) सायार देखो सागार। (चा.२१, २३, भा.६६) सायारं सग्गंथे। (चा.२१) सार पुं न [सार] 1. परमार्थ। (निय.३) भणिदं खलु सारमिदि वयणं। 2. वि [सार उत्तम, रहस्य, श्रेष्ठ।(द.२१,मो.४०) इय उवएसं सारं। (मो.४०) सारंभ पुंसारम्भ] पाप कार्य। अह मोहं सारंभं । (चा.१५) सारीरिय वि शारीरिक शरीर का, शरीर सम्बन्धी। सारीरियं च चत्तारि। (भा.११) सालिसिक्थ पुं [शालिसिक्थ] मच्छ विशेष, मत्स्य की एक जाति, तन्दुलमत्स्य। मच्छो वि सालिसिक्थ। (भा.८८) सावअ/सावग/सावय पुंन [श्रावक] उपासक, अर्हद्भक्त गृहस्थ, विरताविरत संयम वाला। (निय.१३४, द.२७, चा.२७, प्रव.चा.५०, भा.१४३) वीयं उक्किट्ठसावयाणं तु। (द.१८) -धम्म पुंन [धर्म] श्रावक धर्म एवं सावयधम्मं । (चा.२७) -सम वि [सम] श्रावक के समान। सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो। (भा.१५४) सासस/सासद/सासय वि [शाश्वत] नित्य, अविनश्वर। (मो.६, For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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