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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 33 भेद, सत्य। (स.२६४, शी.१९) जीवदया दमसच्वं । (शी.१९)2. न [सत्त्व] सत्ता, अस्तित्व, सत्त्व। सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो। (प्रव.जे.१५) सञ्चित्त वि [सचित्त] सजीव,चेतना,गुणवाला। (स.२२०), भा.१०२, मो.१७) सच्चित्ताचित्ताणं। (स.२४३) सच्चेयण वि [सचेतन] सजीव,चेतना सहित। सच्चेयणपच्चक्खं। सच्छंद वि [स्वच्छन्द] स्वेच्छानुसार चलने वाला, उन्मार्गी। जो विहरइ सच्छंदं। (सू.९) सजण पुं स्वजन] सगा, कुटुम्बी। मादुपिदुसजण। (द्वा.३) सजीव वि [सजीव] सचेतन, जीव सहित। (चा.२९) -दव पुन - [द्रव्य] सजीव द्रव्य सजीवदवे अजीवदव्वे य। (चा.२९) सजोइ/सजोगि पुंन संयोगिन्] अर्हन्त, सयोगी, तेरहवां गुणस्थान वालों की संज्ञा विशेष। -केवलि वि केवलिन्] सयोगकेवली। (बो.३१) सजोइकेवलि य होइ अरहंतो। (बो.३१) चौतीस अतिशय रूप गुण एवं आठ प्रातिहार्य तेरहवें गुणस्थान में रहने वाले सयोगकेवली के होते हैं। सजोग्ग वि [स्वयोग्य] अपने योग्य, अपने लायक। चरियं चरउ सजोग्गं। (प्रव.चा.३०) सज्झाय पुं स्वाध्याय] शस्त्र पठन, आवर्तन। (निय.१५३, बो.४३) वचनमय प्रतिक्रमण वचनमयप्रत्याख्यान, वचनमय नियम और वचनमय आलोचना स्वाध्याय है। (निय.१५३) स्वाध्याय के For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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