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(निय.४९) संसिद्धि वि [संसिद्धि] संसिद्धि, शुद्ध आत्मा की सिद्धि,
आत्मसाधना। संसिद्धिराधसिद्धं । (स.३०४) संहणणन [संहनन] शरीर रचना, अस्थि रचना, नामकर्म का एक
भेद। (बो.४५, निय.४५) संठाणा संहणणा। (निय.४५) सकल वि [सकल] सम्पूर्ण, पूर्ण, पूरा , सब । सकलं सगं च इदरं। (प्रव.५४) सकीय वि [स्वकीय] अपने, निज । सकीयपरिणामो। (निय.११०) सक्क पुं शुक्र] 1.सौधर्म नामक प्रथम देवलोक का इन्द्र, इन्द्र विशेष । (द्वा.५)-धणुपुं [धनुष्] इन्द्रधनुष । (द्वा.५)2.त्रि शक्य] संभव,होने योग्य,अभिहिता (पंचा.१६८,स.८,प्रव.४८) जह णवि सक्कमणज्जो। (स.८) सक्क अक [शक्] सकना, समर्थ होना, योग्य होना, शक्तिशाली होना। (स.२२०) निय.१५४, द.२२ मो.२१) णवि सो सक्कइ तत्तो। (स.३४२) सक्कइसक्केइ/सक्कदि (व.प्र.ए.निय.१०६, द.२२) सक्कए (व.प्र.ए.मो.२१) सक्कार पुं [सत्कार सम्मान, आदर। (प्रव.चा.६२) सक्किरिया स्त्री [सक्रिया] क्रिया सहित, सक्रिय । सह सक्किरिया हवंतिण य सेसा। (पंचा.९८) सक्खादं अ [साक्षात्] प्रत्यक्ष, प्रकट, आँखों के सामने। बहिरंग जदि
हवेदि सक्खादं। (द्वा.७१) सग वि [स्वक] आत्मीय, निजी, अपनी। (पंचा.१६७, स.२३४
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