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300 भा.१२४) ते देहवेदणट्ठा। (प्रव.७१) वेयण पुंन [व्यजन] 1.बेना, पंखा। (भा.१०) 2.न [वेदन] जानना, ज्ञान, अनुभव। वेर न [वैर] विरोध, शत्रुता, वैमनस्य, द्रोह। (निय.१०४) वेरं
मज्झंण केणवि। वेरग्ग न [वैराग्य] विरागभाव, सांसारिक, विषय वासनाओं के प्रति उदासीनता,विरक्ति। वेरग्गपरो साहू। (मो.१०१) वोच्छ सक [वच्] कहना, बोलना। (स.१, पंचा.१०५, निय.१,
चा.२, मो.२, भा.१, लिं.१, द्वा.१) वोच्छामि णियमसारं। (निय.१) वोसट्ट वि [दे] व्युत्सर्ग, त्यक्त, छोड़ा हुआ, खाली।
वोसट्टचत्तदेहा। (द.३६) वोसर सक [व्युत्+सृज्] परित्याग करना, छोड़ना। (निय.९९)
सव्वं तिविहेण वोसरे। (निय.१०३) वोसरे (व.उ.ए.निय.१०३) वोसरित्ता (सं.कृ.निय.१०४) वोसर वि [व्युत्सर्ग] कायरहित, शरीर के ममत्व का त्याग। (बो.१२) -पडिमा स्त्री प्रतिमा कायरहित मूर्ति, कायोत्सर्ग की मुद्रा। वोसरपडिमा धुवा सिद्धा। (बो.१२)
स स पुं [स्व] 1.खुद, निज, अपनी। (प्रव.३०, मो.३१,स.२) दुद्धज्झसियं जहा सभासाए। (प्रव.३०)-विहव पुं विभव] निज
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