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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 291 नूंचदि जीवो विरागसंपत्तो। (स.१५०) विराधग वि [विराधक] तोड़ने वाला, खण्डन करने वाला। (म.९८) जिणलिंगविराधगो णिच्चं । (मो.९८) विराण न [विराधन] खण्डन, भङ्ग। (निय.८४) मोत्तूण विराहणं विसेसेण। (निय.८४) विरुद्ध वि [विरुद्ध] विपरीत, प्रतिकूल, उल्टा। (पंचा.५४) अण्णेण्णविरुद्धमविरुद्धं । (पंचा.५४) विलम/विलय पुं विलय] विनाश, व्यय, प्रलय, विलय। जो हि भवो सो विलओ। (प्रव.जे.२७) । विवज्जिअ/विवज्जिय वि [विवर्जित] रहित, वर्जित, निषेध । (निय.५९, भा.१२२ मो.४५) मेहुणसण्णविवज्जिय। (निय.५९) -भाव पुं [भाव] भावरहित। (निय.११२) मदमाणमायलोहविवज्जियभावो। (निय.११२) विवर न [विवर] अन्तःस्थान, अन्तराल, गड्ढा, छेद। जं देदि विवरमखिलं। (पंचा.९०)। विवरीअ/विवरीद/विवरीय वि [विपरीत विरोधी, नियमविरुद्ध, मिथ्या। (स.२५०, प्रव.चा.५५,निय.३, चा.३३, मो.५४) पाणी सत्तो दु विवरीदो। (स.२५३) -अभिणिवेस पुं [अभिनिवेश] विपरीत आग्रह। (निय.१३९) विवरीयाभिणिवेसं। -परिहरत्यपुं न [परिहरार्थ] विपरीत का परिहार करने के लिए। विवरीयपरिहरत्थं। (निय.३) -भासण न [भाषण] विपरीत कथन, मिथ्याप्रतिपादन। (चा.३३) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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