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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 232 अनेक बार। (भा.२७) -वियप पुं [विकल्प] अनेक विकल्प, बहुत विचार। (स.१८०) -विह [विध] बहुविध, नाना प्रकार। (स.३१८, सू.५, भा.१५, द.४) -सत्त पुंन [भाव] अनेक जीव| (द.२९) -सत्य पुं न शास्त्र] अनेक शास्त्र। (बो.१) बहुअ/बहुग वि [बहुक] अनेक, बहुत। (पंचा.१२३, स.२८९, प्रव, ज्ञे. ४९, भा.३८) बहुल वि [बहुत] प्रचुरता, अनेक, अधिकता। (स.२४२, भा.६९) बहुस वि [बहुशः] अनेक बार, बहुत समय तक। (भा.४) गहिउज्झियाइं बहुसो। (भा.४)। बाण' [बाण] शर, बाण, तीर। (बो.२२) बादर वि [बादर स्थूल, मोटा, जो दूसरों को बाधा दे एवं स्वयं बाधित हो, नाम कर्म का एक भेद। (स.६७, प्रव.जे.७५) । बारस वि द्वादश] बारह, संख्या विशेष। (भा.८०) - अंग स्त्री न [अङ्ग] बारह अङ्ग। (बो.६१) -विह वि [विध] बारह प्रकार का। (भा.८०) बाल पुं [बाल] 1. बाल, केश। (स.१७) बालग्गकोडिमत्तं । (सू.१७) -अग्ग न [अग्र] बालाग्र, बाल के अग्रभाग। 2. बालक, शिशु। (प्रव.चा.३०) -तण वि [त्व] बाल्यकाल, बालपना। (भा.४१) 3. अज्ञानी, अल्पज्ञ। -तव पुं न [तपस्] बाल तप। (स.१५२) -वद पुंन [व्रत] बालव्रत, अज्ञानी के व्रत। (स.१५२) -सहाव पुं स्वभाव] अज्ञानी का स्वभाव। (लिं.२१) -सुदन [श्रुत] अज्ञानी का श्रुत, अल्पश्रुत। (मो.१००) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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