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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 143 झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा। (प्रव. जे.९९) ठव सक [स्थापय स्थापन करना,स्थापित करना।ठवेदि(व.प्र.ए. स. २३४) ठविऊण (सं. कृ. निय.१३६) ठविऊण य कुणदि णिबुदीभत्ती। ठवण न. स्थापन स्थापन, संस्थापन, पूजा का एक भेद, निक्षेप का एक भेद । णामे ठवणे हि य। (बो.२७) ठा अक [स्था] बैठना, स्थिर होना, ठहरना, रहना। ठाइ (व.प्र.ए. निय. १२५, १२६) ठादि (द.१४) ठाही (भू. प्र. ए. स. ४१५) अत्थे ठाही चेया। भूतार्थ के सी,ही,हीअ प्रत्यय हैं, जो तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में समान रूप से प्रयुक्त होते हैं। ये प्रत्यय दीर्घान्त णी,हो, ठा आदि क्रियाओं में लगते हैं। ठाइदूण (सं कृ. स. २३७) गण पुंन [स्थान] स्थान, स्थिति, पद, कारण, जगह, आश्रय। (पंचा.८९,प्रव.४४,स.५२,निय.१५८,भा.११५) -कारण न कारण] स्थिति में कारण, स्थान देने में कारण। आगासं ठाणकारणं तेसिं। (पंचा.९४) -कारणदा [कारणत्व] स्थिति हेतुत्व, स्थिति में कारणपना। गुणो पुणो ठाणकारणदा। (प्रव.जे.४१) ठाणं (प्र.ए.पंचा.८९) ठाणाणि (प्र.ब.स.५२) ठाणे (स.ए.सू.१४) ठाणम्मि (स.ए.स.२३७) ठावणा स्त्री [स्थापना] प्रतिकृति,चित्र,आकार,न्यास का एक भेद ठावणपंचविहेहिं । (बो.३०) ठावण यह स्त्रीलिङ्ग प्रथमा एकवचन For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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