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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 134 जीतने वाला, जितकषाय! पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ। (प्रव.चा.४०) वावीसपरीसहा जिदकसाया। (बो.४४) -भव पुं [भव संसार को जीतने वाला। णमो जिणाणं जिदभवाणं । (पंचा.१)-मोह पुं [मोह]मोह को जीतने वाला। तं जिदमोहं साहुं। (स.३२) जिप्प सक [जि] जीत जाना। (मो.२२) जो कोडिए ण जिप्पइ। (मो.२२) जिप्पइ (व.प्र.ए.) जिव अक [जीव्] जीवनधारण करना, जीवित रहना। मरदु व जीवदु व जीवो। (प्रव.चा.१७) जीवदु (वि. आ.प्र.ए.) जीव पुं न [जीव] चेतना, आत्मा, प्राणी,। (पंचा.१२७, स.१४६, प्रव.जे.३५, चा.४, शी.१९,लिं.९,भा.८) जो प्राणों से जीवित है, वह जीव है। जीवो त्ति हवदि चेदा। (पंचा.२७) जो रस, रूप, गन्ध रहित है, अव्यक्त, चेतनागुण युक्त, शब्द रहित, जिसका किसी चिह्नन अथवा इन्द्रिय से ग्रहण नहीं होता और जिसका आकार कहने में नहीं आता, वह जीव है। अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं। जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। (स.४९, निय.४६, भा.६४)मोह से रहित जीव है।जीवो ववगदमोहो। (प्रव.८१)जो चार प्राणों से जीवित है वह जीव है। पाणेहिं चदुहिं जीवदि, जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं । (प्रव.५५) जीव ज्ञान स्वभाव और चेतना सहित है। णाणसहाओ य चेदणासहिओ। (भा.६२) पंचास्तिकाय में जीव के अनेक भेद किये गये हैं- चैतन्य गुण से युक्त होने से जीव एक For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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