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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 98 खअ पुं क्षय] विनाश, कर्मनाश, कर्म का अभाव। (पंचा.५८) -उवसमिय पुं [औपशमिक] क्षय और उपशम, कर्मों का नाश एवं उपशम, क्षायोपशमिक अवस्था विशेष | खइयं खओवसिमियं, तम्हा भावं तु कम्मकदं। (पंचा.५८) खएण (तृ.ए.पंचा.५६, निय.१७५) खइअ/खइग/खइय पुं [क्षायिक क्षय, विनाश, कर्मो के नाश से उत्पन्न भाव। (पंचा.५८) णो खइयभावठाणा। (निय.४१)-भाव पुं [भाव] क्षायिकभाव। (निय.४१) णो खइयभावठाणा। (निय.४१) खं सक [ख्या] कहना। खंति (चा.३७) खंति जिणा पंचसमिदीओ। (चा.३७) खंड पुंन [खण्ड] टुकड़ा, हिस्सा, भाग। (शी.२५) वट्टेसु य खंडेसु। (शी.२५) खंड सक [खण्ड्य] तोड़ना, खण्डित करना, विच्छेद कला। सस्सं खंडेदि तह य वसुहं पि। (लिं.१६) -दूसयर वि [दूष्यकर खण्डित करने एवं दोष लगाने वाला। (मो.५६) खंध पुं स्कन्ध] स्कन्ध, पुद्गलपिण्ड। (पंचा.९८, प्रव. जे.७५, निय.२०) सव्वेसिं खंधाणं । (पंचा.७७) पुद्गल द्रव्य के चार भेद कहे गये हैं-स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु। खंघा य खंधदेसा, खंधपदेसा य होति परमाणू। (पंचा.७४) परमाणुगों से मिलकर बने हुए पिण्ड को स्कन्ध कहते हैं। खंधं सयलसमत्थं । (पंचा.७५) खंधा हु छप्पयारा। (निय.२०) स्कन्ध के छह घेद For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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